प्रेम योग -वियोगी हरि
दास्य और तुलसी दासमम हृदय भवन, प्रभु तोरा। तहं बसे आइ, बहु चोरा।। तनिक सोचो तो चोर लुटेरों के हाथ से तुम्हारे घर का लुट जाना क्या कम बदनामीकी बात होगी? मुझे बस, इती ही चिन्ता है कि कहीं संसार में तुम्हारा अपयश न फैल जाय, तुम्हारी सारी बनी बनायी बात न बिगड़ जाय। मैं तुम्हारे मकान की यों कब तक रखवाली करता रहूँगा। अभी कुछ गया नहीं, आकर संभालते बने तो सँभाल लो। पीछे फिर मैं तुम्हारे घर का जिम्मेवार नहीं। लो फिर मुझे कोई दोष न देना। इतने निठुर तुम पहले कब थे? तुम्हारे स्वभाव कहाँ से इतनी निठुराई आ गयी, करुणा सागर? आश्चर्य है! जद्यपि, हाथ, उचित न होत अस, प्रभुसों करौं ढिठाई। यह जानता हूँ कि स्वामी के साथ ढिठाई करना ठीक नहीं है; पर करूँ क्या? आर्त हूँ, जो न करूँ सो थोड़ा। आज ढिठाई भी करनी पड़ी है। कहाँ तक चुप रहूँ! कहोगे कि आखिर तू कहना क्या चाहता है, कैसी ढिठाई करेगा? तो, सुनो; क्षमा करना, क्योंकि मैं जड़ हूँ। मुझे कहना ही क्या है, केवल यही कहना है कि ‘तुम निठुर हो।’ निठुर तो हो तुम, पर दुख होता है मुझे! बात यहहै कि मैं अपने स्वामी को नितान्त निर्दोष देखना चाहता हूँ। लोगों का यह कहना कि ‘तुलसी का मालिक बड़ा निर्दय है’ मुझे कैसे सह्य हो सकता है? तुम्हारी निठुराई का यह दोष सुनकर कहीं क्रोध आ गया किसी से लड़ झगड़ बैठा तो तुम्हें और भी बुरा लगेगा। इसलिए और नहीं तो कम से कम मेरा दुख दूर करने या व्यर्थ की लड़ाई झगड़ा बचाने के लिए ही निठुराई की यह नयी आदत तो, सरकार, छौड़ ही दो। इसमें तुम्हारा बिगड़ता ही क्या है? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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