प्रेम योग -वियोगी हरि पृ. 235

प्रेम योग -वियोगी हरि

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दास्य और तुलसी दास

मम हृदय भवन, प्रभु तोरा। तहं बसे आइ, बहु चोरा।।
अति कठिन करहिं बरजोरा। मानहिं नहिं बिनय निहोरा।।
तम, मोह, लोभ, अहंकारा। मद, क्रोध, बोध रिपु मारा।।
कह तुलसिदास, सुनु रामा। लूटहिं तसकर तव धामा।।
चिन्ता यह मोहि अपारा। अपजस नहिं होइ तुम्हारा।।

तनिक सोचो तो चोर लुटेरों के हाथ से तुम्हारे घर का लुट जाना क्या कम बदनामीकी बात होगी? मुझे बस, इती ही चिन्ता है कि कहीं संसार में तुम्हारा अपयश न फैल जाय, तुम्हारी सारी बनी बनायी बात न बिगड़ जाय। मैं तुम्हारे मकान की यों कब तक रखवाली करता रहूँगा। अभी कुछ गया नहीं, आकर संभालते बने तो सँभाल लो। पीछे फिर मैं तुम्हारे घर का जिम्मेवार नहीं। लो फिर मुझे कोई दोष न देना।

इतने निठुर तुम पहले कब थे? तुम्हारे स्वभाव कहाँ से इतनी निठुराई आ गयी, करुणा सागर? आश्चर्य है!

जद्यपि, हाथ, उचित न होत अस, प्रभुसों करौं ढिठाई।
तुलसिदास, सीदत निसिदिन देखत तुम्हारि निठुराई।।

यह जानता हूँ कि स्वामी के साथ ढिठाई करना ठीक नहीं है; पर करूँ क्या? आर्त हूँ, जो न करूँ सो थोड़ा। आज ढिठाई भी करनी पड़ी है। कहाँ तक चुप रहूँ! कहोगे कि आखिर तू कहना क्या चाहता है, कैसी ढिठाई करेगा? तो, सुनो; क्षमा करना, क्योंकि मैं जड़ हूँ। मुझे कहना ही क्या है, केवल यही कहना है कि ‘तुम निठुर हो।’ निठुर तो हो तुम, पर दुख होता है मुझे! बात यहहै कि मैं अपने स्वामी को नितान्त निर्दोष देखना चाहता हूँ। लोगों का यह कहना कि ‘तुलसी का मालिक बड़ा निर्दय है’ मुझे कैसे सह्य हो सकता है? तुम्हारी निठुराई का यह दोष सुनकर कहीं क्रोध आ गया किसी से लड़ झगड़ बैठा तो तुम्हें और भी बुरा लगेगा। इसलिए और नहीं तो कम से कम मेरा दुख दूर करने या व्यर्थ की लड़ाई झगड़ा बचाने के लिए ही निठुराई की यह नयी आदत तो, सरकार, छौड़ ही दो। इसमें तुम्हारा बिगड़ता ही क्या है?

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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प्रेम योग -वियोगी हरि
क्रमांक विषय पृष्ठ संख्या
पहला खण्ड
1. प्रेम 1
2. मोह और प्रेम 15
3. एकांकी प्रेम 25
4. प्रेमी 29
5. प्रेम का अधिकारी 41
6. लौकिक से पारलौकिक प्रेम 45
7. प्रेम में तन्मयता 51
8. प्रेम में अधीरता 56
9. प्रेम में अनन्यता 63
10. प्रेमियों का मत मज़हब 72
11. प्रेमियों की अभिलाषाएँ 82
12. प्रेम व्याधि 95
13. प्रेम व्याधि 106
14. प्रेम प्याला 114
15. प्रेम पंथ 120
16. प्रेम मैत्री 130
17. प्रेम निर्वाह 141
18. प्रेम और विरह 146
19. प्रेमाश्रु 166
20. प्रेमी का हृदय 177
21. प्रेमी का मन 181
22. प्रेमियों का सत्संग 186
23. कुछ आदर्श प्रेमी 190
दूसरा खण्ड
1. विश्व प्रेम 204
2. दास्य 213
3. दास्य और सूरदास 223
4. दास्य और तुलसी दास 232
5. वात्सल्य 243
6. वात्सल्य और सूरदास 253
7. वात्सल्य और तुलसीदास 270
8. सख्य 281
9. शान्त भाव 291
10. मधुर रति 299
11. अव्यक्त प्रेम 310
12. मातृ भक्ति 317
13. प्रकृति में ईश्वर प्रेम 322
14. दीनों पर प्रेम 328
15. स्वदेश प्रेम 333
16. प्रेम महिमा 342
अंतिम पृष्ठ 348

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