प्रेम-योग
प्रेम की पूर्ण परिभाषा लाख उपाय करो कहीं ढूँढ़े मिलेगी नहीं। बात यह है न कि प्रेमपुरी का सब कुछ अनोखा ही अनोखा है। वहाँ देखते ही बनता है, कहते नहीं बनता-
प्रेम बात कछु कही न जाई। उलटा चाल तहाँ सब भाई।।
प्रेम बात सुनि बौरा होई। तहाँ सयान रहै नहिं कोई।।
तन मन प्रान तिही छिन हारै। भली बुरी कछुवै न विचारैं।।
ऐसो प्रेम उपजिहै जबहीं। ‘हित ध्रुव’ बात बनैगी तबहीं।।
प्रेम कि छटा बहुत बिधि आही। समुझिलई जिन जैसी चाही।।- ध्रुवदास
असल बात यह है, प्रेम के शर्करा गिरि से जिस रसज्ञ चीटीं को जितने कण मिलें, उसे उतनी ही बहुत हैं। प्रेमियों को अपूर्णता होते हुए भी पूर्ण ही है।
अन्त में, प्रेम की अपूर्ण व्याख्या पर इस प्रेम शून्य हृदय का भी यह एक अधूरा प्रलाप है-
पियारे, धन्य तिहारो प्रेम!
साँचेहुँ बिना प्रेम बसुधा पै झूठे नीरस नेम।।
भरय्यौ अगम सागर कहूं, तहँ खेलति उमँगि हिलोर।
ता सँग झूलति झूलना कोई नैन रंगीली कोर।।
मानस मधि झरना झरत इक रस रस रसिक रसाल।
मधुर समीर आंगुरिन पै कोई बिहरत मत्त मराल।।
बिरह कमल फूल्यौ कहूँ, चहुँ छायौ दरस पराग।
बँध्यौ बावरो अलि अधर तहँ लहत सनेह सुहाग।।
धरी कहूँ एक आरसी अति अद्भुत अलख अनूप।।
उझकि उझकि झाँकत कोई तहँ छूपछाँह कौ रूप।।
अरी प्रेम की पीर! तूँ मचलति सहज सुमाय।
करि चख पूतरि तोय को तब लाड़ लड़ावतु आय।।
उठी उमँगि घन घटा कहुँ, पै रही हियें घुमराय।
परति फुही अँखियान में यह कैसी प्रेम बलाय।।
कहा करौ वा नगर की कछु रीति कही नहिं जाय।
हेरत हिय हीरा गयो यह हेरनि हाय हिराय।।
एक मरजीवा मरमी बिना ‘हरि’ भरमु न समुझै कोय।
हिलक तीर की पीर बिनु कोइ कैसे मरमी होय।।
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