प्रेम योग -वियोगी हरि
प्रेम-योगकैसा अद्भुत रहस्यवाद है। प्रेम की कैसी अनोखी परिभाषा है। एक एक चित्र हृदय की आँखों में खिचता चला आ रहा है। यह बृहत् ग्रंथ, यह विशाल वारिधि, यह सत्य लोक, यह बवण्डर, यह विद्युत और यह ब्रह्मयुग! कैसा सुंदर सामंजस्य हुआ है प्रेम के क्षितिज पर! यह आनन्द और यह वेदना! बलिहारी! प्रेम कैसा महान् रहस्य है। प्रेम रत्न के प्रवीण पारखी कविवर देव ने भी प्रेम को अपनी खास कसौटी पर कसा है। नीचे के पद्य में उनकी प्रेम परख देखिये- जाके मदमात्यौ उमात्यौ न कहुँ कोई जहाँ आपने व्रज राज और व्रज रानी के नित्य विहार को प्रेम का नाम दिया है। इसमें संदेह नहीं कि महाकवि देवकी यह प्रेम परिभाषा अनूठी और अपूर्व है। अहा! जाके मदमात्यौ उमात्यौ न कहुँ कोई जहाँ, |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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