प्रेम योग -वियोगी हरि
प्रेम-योगनीचे की पंक्तियों में इस प्रेम हालाहल का भेद रहस्यवादी सहृदयवर जयशंकर ‘प्रसाद’ ने खूब खोला है- तेरा प्रेम हलाहर प्यारे, अब तो सुख से पीते हैं। हाँ, सच तो है- प्रेम हालाहल संखिये की तरह मारक नहीं है। पर वह मरण का मारक निःसंदेह है। सती शिरोमणि सावित्री के प्रेम न ही तो भगवान् यम को परास्त किया था। प्रेम का सामना मृत्यु नहीं कर सकती, कारण कि वह एक अनन्त जीवन का रूप है। जो जीवन है वही तो प्रेम है। प्रेम और जीवन वस्तुतः एक ही वस्तु के दो नाम हैं। हाँ, ‘अहन्ता’ का हन्ता वह अवश्य है। उसे हम ‘देहात्मवाद’ का नाशक कह सकते हैं। जागते हुए अहंकार को सुलाने वाला और सोती हुई आत्मा को जगाने वाला एक प्रेम ही है। प्रेम केवल एक शब्द का यह कैसा बृहत् ग्रंथ है। एक ही आँसू का कितना विशाल सागर है! ओह! एक ही दृष्टि में सातवाँ स्वर्ग दिखायी दे रहा है। एक ही आहने कैसा बवण्डर उठा दिया है! एक तो स्पर्श में यह विद्युत! एक क्षण में ये लाखों युग! इस महान् प्रेम को आशीर्वादात्मक कहें या सर्वनाशात्मक? अहा! इसी में तो आनन्द और वेदना का केंद्रीयकरण हुआ है। स्वयं कवि ने शब्दों में- Love! What a volume in a word! |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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