प्रेम योग -वियोगी हरि
मोह और प्रेमकहा है- अर्थात्, जाओ, जाओ, तुम प्रेम करना क्या जानो! प्रेमी बनने चले हो! तुम प्रेमी नहीं हो सकते। प्रेमी की सिर्फ एक नकल हो, एक छायामात्र हो! मोह और प्रेम के लक्ष्य में सामान्य और विशेष का अन्तर माना गया है। किसी के सुंदर रूप पर चट से मोहित होकर उसकी ओर व्याकुल हो दौड़ पड़ना मोह या लोभ है। किसी विशेष व्यक्ति या वस्तु को दूसरों की दृष्टि में चाहे वह बुरी ही हो- देखकर उसमें अनन्य बाव से आसक्त हो जाना या रम जाना प्रेम है। मोह में बुद्धि व्यभिचारिणी रहती है और प्रेम में अव्यभिचारिणी। अतएव मोह दुखरूप है और प्रेम आनन्द रूप। मोह अनित्य है और प्रेम नित्य। प्रेम मूर्ति अश्विनी कुमार दत्त ने प्रेम और मोह के अन्त पर नीचे कैसे विशद विचार व्यक्त किये हैं- “जो प्रेम शरीर के साथ क्रीड़ा करता है वह प्रेम नहीं, मोह है। अस्थि, चर्म, मांस, रुधिर लेकर जहाँ कारबार है वहाँ प्रेम कहाँ? xxxxxxx सोच देखो, तुम अपने प्रेमास्पद के विषय में विचारने पर उसकी नाक, मुख, आँख आदि की चिन्ता करते हो, या उसके आध्यात्मिक सौंदर्य और नैतिक शक्ति एवं सामर्थ्य के विषय में चिन्ता करते हो? तुम देखो कि आज यदि वह प्यारा जगत् के मंगल के अर्थ, चिर दिनों के लिये, तुमसे बिछुड़ जाय- वह तुम्हें अच्छा मालूम होगा, या जगत् के मंगल के अर्थ, चिर दिनों के लिए, तुमसे बिछुड़ जाय- वह तुम्हें अच्छा मालूम होगा, या जगत् के मंगल की ओर से मन हटाकर तुम्हारे वक्षः स्थल पर सिर रखकर सर्वदा तुम्हारे, साथ प्रेम कथा कहता रहे, यह अच्छा लगेगा? यदि उसके शरीर को वक्षःस्थल पर रकने की ओर ही झुकाव अधिक है, तो समझो ‘प्रेम’ नाम देकर तुमने मोह का आवाहन किया है, सुझा समझकर विषपान किया है।[1]” |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ प्रेम
संबंधित लेख
क्रमांक | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज