प्रेम योग -वियोगी हरि
प्रेम व्याधि‘कबिरा’ बैद बुलाइया, पकरिकै देखी बाहँ। रोगी को देखने के लिए वैद्य बुलाया गया। उसने आकर नाड़ी देखी। रोग के लक्षण मिलाये। पर वह बेचारा किसी सुलझे हुए नतीजे पर पहुँच न सका। रोग का जब वह निदान ही निश्चित न कर सका, तब उपचार क्या पत्थर करता! कलेजे की कड़क का क्या निदान होना चाहिए, यह उसकी बुद्धि से बाहर की बात थी। करते ही क्या, अपना सा मुँह लिये वैद्यराज महोदय वहाँ से चल दिये। क्यों वे लोग बार बार रोगी को तंग करते हैं? उसकी व्यथा जानकर वे क्या करेंगे? व्यर्थ ही वे मूर्ख उसकी व्यथा के बारे में पूछ रहे हैं- बावरे हैं ब्रज के सिगरे, मोहि नाहक पूछत कौन व्यथा है। पूछने का यही कारण है कि रोग का ठीक ठीक पता चल जाय और तब उसका कुछ इलाज किया जाय। यह खूब रही। इलाज तभी न किया जाएगा, जब वह अपने रोग का इलाज करना चाहेगा। दवा से तो वह कोसों दूर भागता है। कहता है- तेरे इश्क ने दिल मे जो दर्द दिया, लो; करो इलाज. जिसने दवा न लेने की कसम खा ली है, उसका क्या इलाज करोगे? दूसरे यह इलाज कुछ काम भी तो न देगा। यह जानते हो या नहीं कि- |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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