प्रेम योग -वियोगी हरि
प्रेम-योगहृदय कोमल कैसे हो जाता है? प्रेम के लिए क्या कठिन है? अरे, वह तो पत्थर को भी पिघलाकर पानी कर देता है- पर वह तो प्रेम चाह से लबालब भरा हुआ। वह प्रेम निरंतर हो, नित्य नूतन ही- छिनहिं चढ़े छिन ऊतरै, सो तो प्रेम न होय। यही प्रेम पत्थर को मोम या पानी कर सकता है। इसी की बदौलत बड़े बड़े संगदिल मोमदिल होते देखे गये हैं। यही पहाड़ों की छातियों से झरने झरा रहा है और यही चंद्रकांत मणियों को द्रवित कर रहा है। अखिल विश्व में प्रेम का ही अखण्ड साम्राज्य है। प्रेम ‘अस्तित्व’ है और उसका अभाव ‘नास्तित्व’। प्रेम का साधक उसमान अपनी ‘चित्रावली’ में लिखता है- कहता है- विधाता ने सर्वप्रथम अपनी सृष्टि में प्रेम ही उत्पन्न किया और फिर उस प्रेम के ही निमित्त उस कलाकार ने इस समस्त संसार की रचना की। उस सिरजनहारने जब इस प्रेममय विश्व-दर्पण में अपने ‘प्रेमरूप’ को देखा, तब उसे अपने आनन्द का अन्त न मिला। प्रेम रस ही प्रेम रस वहाँ लहरा रहा था- आदि प्रेम विधिनै उपराजा। प्रेमहि लागि जगत सब साजा।। प्रेमयोगी मलिक मुहम्मद जायसी ने भी विश्वमात्र में प्रेम की ही सर्वव्यापकता देखी है, अथवा विश्व की व्यापकता को प्रेम की संज्ञा दी है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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