प्रेम योग -वियोगी हरि पृ. 8

प्रेम योग -वियोगी हरि

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प्रेम-योग

हम तौरे इश्क से तो वाकिफ नहीं हैं, लेकिन सीने में कोई जैसे दिल को मला करै है।

भोला भाला मीर प्रेम का लक्षण भला क्या जाने। वह तो सिर्फ इतना ही जानता है, जैसे कोई अपने दिल को उसके सीने में मल रहा हो। क्या इसी को प्रेम कहते हैं? ऐसा ही कुछ और-

इश्को मुहब्बत क्या जानूँ, लेकिन इतना मैं जानूँ हूँ,
अन्दर ही अन्दर सीने में मेरे दिल को कोई खाता है।- सत्यनारायण


शायद इस मधुमयी वेदना का ही नाम प्रेम हो। कौन जाने क्या है? सब कुछ जान लेने पर भी ये भोले- भाले गालिब और मीर प्रेम के नाम से अपरिचित ही बने रहे। प्रेम है ही ऐसी चीज। भक्तिरसामृत सिन्धु में लिखा है-

सम्यङ्मसृणितस्वान्तो समत्वातिशयांकितः।
भावः स एव सान्द्रात्मा बुधैः प्रेमा निगद्यते।।

जिससे हृदय अतिशय कोमल हो जाता है, जिससे अत्यंत ममता उत्पन्न होती है, उसी भाव को बुद्धिमान् जन परम प्रेम कहते हैं। परमानुराग ही प्रेम है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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प्रेम योग -वियोगी हरि
क्रमांक विषय पृष्ठ संख्या
पहला खण्ड
1. प्रेम 1
2. मोह और प्रेम 15
3. एकांकी प्रेम 25
4. प्रेमी 29
5. प्रेम का अधिकारी 41
6. लौकिक से पारलौकिक प्रेम 45
7. प्रेम में तन्मयता 51
8. प्रेम में अधीरता 56
9. प्रेम में अनन्यता 63
10. प्रेमियों का मत मज़हब 72
11. प्रेमियों की अभिलाषाएँ 82
12. प्रेम व्याधि 95
13. प्रेम व्याधि 106
14. प्रेम प्याला 114
15. प्रेम पंथ 120
16. प्रेम मैत्री 130
17. प्रेम निर्वाह 141
18. प्रेम और विरह 146
19. प्रेमाश्रु 166
20. प्रेमी का हृदय 177
21. प्रेमी का मन 181
22. प्रेमियों का सत्संग 186
23. कुछ आदर्श प्रेमी 190
दूसरा खण्ड
1. विश्व प्रेम 204
2. दास्य 213
3. दास्य और सूरदास 223
4. दास्य और तुलसी दास 232
5. वात्सल्य 243
6. वात्सल्य और सूरदास 253
7. वात्सल्य और तुलसीदास 270
8. सख्य 281
9. शान्त भाव 291
10. मधुर रति 299
11. अव्यक्त प्रेम 310
12. मातृ भक्ति 317
13. प्रकृति में ईश्वर प्रेम 322
14. दीनों पर प्रेम 328
15. स्वदेश प्रेम 333
16. प्रेम महिमा 342
अंतिम पृष्ठ 348

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