प्रेम योग -वियोगी हरि
प्रेम-योगवास्तव में, इस पराभूत परिश्रान्त हृदय का विश्रान्ति स्थल एक प्रेम ही है। आत्मा के अनुकूल केवल एक प्रेम ही है। आत्मा स्वतः प्रेमस्वरूप है। संसार में अत्यंत उज्ज्वल और अतिशय पवित्र प्रेम ही है। और सब अनित्य है, प्रेम ही नित्य है। ध्रुव के समान अचल है। उसे हम अजर अमर क्यों न कहें। जो रसरूप है, आनन्दघन है, वही प्रेम परमात्मस्वरूप है। पर ऐसा विशुद्ध प्रेम यहाँ दुर्लभ है। कहाँ हैं उसके अनन्य अधिकारी यहाँ!!भवभूति की यह प्रेम परिभाषा बड़ी सुंदर है। कवि ने प्रेमानुभव समझाने की अच्छी चेष्टा की है और उसे इसमें सफलता भी मिली है। खासी विस्तृत परिभाषा है। पर इश्क की दुनिया में कुछ ऐसे भी मस्त हो गये हैं, जो अपना प्रेमानुभव कहने को जैसे तैसे खड़े तो हुए, पर ठीक-ठीक कुछ न कह न सके, यों ही कुछ कहकर रह गये। गालिब को ही लीजिए। कहते हैं- शायद इसी का नाम मुहब्बत है शेफता, मालूम नहीं यह क्या है। दिल में आग सी लगी हुई है। क्या इसी आग सी लगने का नाम ही लगन है? मुहब्बत शायद इसी को कहते होंगे। हम यह नहीं कहते कि दिल में आग लगी है। आग तो नहीं है, पर कुछ आग सी लगी है। न जाने, यह क्या बला है। आनन्दघन भी कुछ ऐसी ही बात कह रहे हैं- जबतें निहारे घनआननंद सुजान प्यारे, उर्दू शायरी के उस्ताद मीर भो गालिब की ही तरह इश्क से नावाकिफ हैं? उन्होंने इश्क की तारीफ यों की है- |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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