प्रेम योग -वियोगी हरि
प्रेम-योगकहता है- तीन लोक चौदह खंड, सबै परैं मोहिं सूझि। एक और परिभाषा मिली है। सुनिये- दर्शन स्पर्श ने वापि श्रवणे भाषणेऽपि वा। देखने, छूने, सुनने या बोलने में जहाँ अंतःकरण द्रवीभूत हो जाय, हृदय पसीज उठे, वहाँ समझ लो स्नेह का आविर्भाव हो गया। उस दर्शन स्पर्शन में, उस श्रवण भाषण में असीम, अनन्त अतृप्ति रहती है। या यों कहना चाहिए कि उस अनन्त अतृप्ति में ही एक अनन्त तृप्ति भरी रहती है। कवि कोकिल विद्यापति का यह पद कितना भावपूर्ण और मधुर है- जनम अवधि हम रूप निहारनु, |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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