प्रेम योग -वियोगी हरि पृ. 66

प्रेम योग -वियोगी हरि

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प्रेम में अनन्यता

महादेव अवगुन भवन विष्णु सकल गुनधाम।
जेहि कर मन रम जाहि सन तेहि तेही सन काम।। - तुलसी

कृष्ण रूप रस की मधुकरी गोपियों ने भी तो पंडित प्रवर उद्धव से कुछ ऐसी ही बात प्रेम विह्वल होकर कही थी-

ऊधो, मन माने की बात।
दाख छुहारा दै कपूर कोउ, तजि की अँगार अघात?
मधुप करत घर कोरि काठ में बँधत कमल के पात।।
ज्यों पतंग हित जानि आपनो दीपकसों लपटात।
‘सूरदास’ जाकौ मन जासों, सोई ताहि सुहात।।

विष के कीड़े को विष ही रुचिकर प्रतीत होता है। वह मूर्ख अमृत जैसे मीठे फलों को छोड़कर विष खाता है। चकोर को कितना ही कपूर चुगने को दो, पर क्या वह अंगारों को छोड़कर तुम्हारे कपूर से कभी तृप्त होगा? अब पद्म प्रेमी भ्रमर को लो। जो कठोर काठ को भी कुरेद कुरेद कर उसमें घर बना लेता है, वही कमल के कोमल कोश के भीतर सहज ही बँध जाता है। और, पतंगे के समान अंधा और कौन होगा। वह मूढ़ सर्वस्व नष्ट कर देने वाले दीपक को प्रेमालिंगन देने के अर्थ अधीर हो दौड़ता है। इन वज्र मूर्ख प्रेमियों को क्या कही और सुयोग्य प्रेम पात्र नहीं मिलते? मिला करें, पर उन्हें उनसे क्या प्रयोजन है। उनकी लगन तो उन्हीं से लग रही है। जिसका मन जिसमें लग जाता है, उसे वही सुहाता है। कविवर विहारी ने क्या अच्छा कहा है-

अति अगाध, अति औथरो नदी कूप सर बाइ।
सो ताकौ सागर जहाँ जाकी प्यास बुझाई।।

नदी, कुआँ, तालाब, बावली आदि कुछ भी हो और वह भी चाहे अत्यंत गहरा हो अथवा बिल्कुल ही छिछला; जिसकी प्यास जिस जलाशय से बुझ जाय, वही उसके लिए समुद्र है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

प्रेम योग -वियोगी हरि
क्रमांक विषय पृष्ठ संख्या
पहला खण्ड
1. प्रेम 1
2. मोह और प्रेम 15
3. एकांकी प्रेम 25
4. प्रेमी 29
5. प्रेम का अधिकारी 41
6. लौकिक से पारलौकिक प्रेम 45
7. प्रेम में तन्मयता 51
8. प्रेम में अधीरता 56
9. प्रेम में अनन्यता 63
10. प्रेमियों का मत मज़हब 72
11. प्रेमियों की अभिलाषाएँ 82
12. प्रेम व्याधि 95
13. प्रेम व्याधि 106
14. प्रेम प्याला 114
15. प्रेम पंथ 120
16. प्रेम मैत्री 130
17. प्रेम निर्वाह 141
18. प्रेम और विरह 146
19. प्रेमाश्रु 166
20. प्रेमी का हृदय 177
21. प्रेमी का मन 181
22. प्रेमियों का सत्संग 186
23. कुछ आदर्श प्रेमी 190
दूसरा खण्ड
1. विश्व प्रेम 204
2. दास्य 213
3. दास्य और सूरदास 223
4. दास्य और तुलसी दास 232
5. वात्सल्य 243
6. वात्सल्य और सूरदास 253
7. वात्सल्य और तुलसीदास 270
8. सख्य 281
9. शान्त भाव 291
10. मधुर रति 299
11. अव्यक्त प्रेम 310
12. मातृ भक्ति 317
13. प्रकृति में ईश्वर प्रेम 322
14. दीनों पर प्रेम 328
15. स्वदेश प्रेम 333
16. प्रेम महिमा 342
अंतिम पृष्ठ 348

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