प्रेम योग -वियोगी हरि
प्रेम में अनन्यतामहादेव अवगुन भवन विष्णु सकल गुनधाम। कृष्ण रूप रस की मधुकरी गोपियों ने भी तो पंडित प्रवर उद्धव से कुछ ऐसी ही बात प्रेम विह्वल होकर कही थी- ऊधो, मन माने की बात। विष के कीड़े को विष ही रुचिकर प्रतीत होता है। वह मूर्ख अमृत जैसे मीठे फलों को छोड़कर विष खाता है। चकोर को कितना ही कपूर चुगने को दो, पर क्या वह अंगारों को छोड़कर तुम्हारे कपूर से कभी तृप्त होगा? अब पद्म प्रेमी भ्रमर को लो। जो कठोर काठ को भी कुरेद कुरेद कर उसमें घर बना लेता है, वही कमल के कोमल कोश के भीतर सहज ही बँध जाता है। और, पतंगे के समान अंधा और कौन होगा। वह मूढ़ सर्वस्व नष्ट कर देने वाले दीपक को प्रेमालिंगन देने के अर्थ अधीर हो दौड़ता है। इन वज्र मूर्ख प्रेमियों को क्या कही और सुयोग्य प्रेम पात्र नहीं मिलते? मिला करें, पर उन्हें उनसे क्या प्रयोजन है। उनकी लगन तो उन्हीं से लग रही है। जिसका मन जिसमें लग जाता है, उसे वही सुहाता है। कविवर विहारी ने क्या अच्छा कहा है- अति अगाध, अति औथरो नदी कूप सर बाइ। नदी, कुआँ, तालाब, बावली आदि कुछ भी हो और वह भी चाहे अत्यंत गहरा हो अथवा बिल्कुल ही छिछला; जिसकी प्यास जिस जलाशय से बुझ जाय, वही उसके लिए समुद्र है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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