प्रेम योग -वियोगी हरि
प्रेम में अनन्यताआजाद ने भी खूब कहा है- हुआ लैला न मजनू, कोहकन शीरीं प सौदाई। जब वहाँ दूसरे के लिए ठौर ही नहीं रहा, तब बताओ, कोई और उस भरे पूरे मानस में कैसे रमे। एक कृष्णानुरागिणी गोपिका उद्धव से कहती हैं- नाहिंन रह्यौ मन में ठौर। अब अनन्यता के इन दो दराजों पर गौर कीजिए। पहला तो वह है कि ‘कानन दूसरो नाम सुनैं नहि’ या ‘रोकिहौं नैन बिलोकत औरहिं’ अथवा गरैगी जीह जो कहौं और की हौं और दूसरा यह है कि ‘हृदय में वह स्याम मूरति, छिन न इत उत जाति।।’ उस मोहन की विश्व मोहिनी मूर्ति को छोड़ कोई दूसरा ध्यान में ही नहीं आता। एक ही एक है, दूसरा कोई है ही नहीं। यहाँ ‘श्रवननि और कथा नहीं सुनिहौं, रसना और न गैहौं’ का सवाल ही नहीं उठता। अब8 तो यही अनुभव में आता है कि- |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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