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प्रेम योग -वियोगी हरि
लौकिक से पारलौकिक प्रेमवह लौकिक प्रेम में मतवाला भी कितना बड़भागी है, कैसा पहुँचा हुआ है, जो अपने प्रेम पात्र से यह कहता हुआ अमर-धाम को जा रहा है- परस्तिशकी याँ तक कि, ये बुत? तुझे, प्यारे ईश्वर का आराधन करना भला मैं क्या जानूँ। मैंने तो एक तेरी ही उपासना की है, तुझे ही ईश्वर माना है। सो आज मैं तुझे केवल अपनी ही दृष्टि में नहीं, बल्कि सारे जहान की नजर में खुदा बनाकर जा रहा हूँ। इन हजरत ने देखा किस मजे के साथ दुनियाबी प्रेम से खुदाई प्रेम की तरफ अपने जीवन की आखिरी मंजिल तय की है! खूब किया यार, जो- प्रेम तो प्रेम ही रहेगा, चाहे वह किसी व्यक्ति विशेष के प्रति हो, चाहे ईश्वर के प्रति। पर जो प्रेम ही नहीं है, वह ईश्वर परमेश्वर के प्रति होने पर भी प्रेम नहीं है। लौकिक हो वा अलौकिक, मजाजी हो या हकीकी, किसी भी दरजे का हो, पर होना चाहिए वह प्रेम सच्चा। विश्व विख्यात प्रेमी मजनूँ का प्रेम कितना ऊँचा, कितना सच्चा और कितना पवित्र था। क्या ही अद्वितीय अनन्यता थी मजनूँ के प्रेम में। एक दिन परमात्मा ने प्रकट होकर उस पगले से कहा- ‘अरे मूर्ख! तू मेरी उपासना क्यों नहीं करता? क्यों एक मामूली लड़की के प्रेम में अपने को तबाह कर रहा है?’ इस पर अल्लाह को हजरत क्या जवाब देते हैं- ‘मुझे क्या पड़ी है, जो तुझे पूजत फिरूँ! मैं अपनी लैला के सिवा और किसी को नहीं पहचानता। क्या हुआ जो तू खूदा है, मैं तेरी तरफ देखूंगा भी नहीं। तू मेरी प्यारी लैला तो है नहीं। हाँ, लैला की प्यारी सूरत में जो तूने आपना दीदार दिया होता तो जरूर यह खाकसार तेरे कदमों पर अपना सर रख देता, तुझे अपनी आँखों पर बिठा लेता, अपने दिल के अंदर छुपा लेता है। पर मुश्किल तो यह है कि तू लैला नहीं है, एक मामूली खुदा है।’ वाह अल्लाह भी मजनूँ को लैला ही नजर आता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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