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प्रेम योग -वियोगी हरि
लौकिक से पारलौकिक प्रेमवाह साहब, वाह! बुतखाने या काबे में बिना प्रेम के वह प्यारा मिलने का नहीं। पहले भाई! कहीं प्रेम करना सीखो, पीछे मंदिर और मसजिद में उसे खोजने जाओ। काबे जाने की तुम्हें जरूरत ही न पड़ेगी। प्रेम मंदिर में ही तुम्हें काबा नजर आ जायेगा, प्रेम पात्र में परमात्मा का पवित्र दर्शन हो जायेगा। कवि कहता है- बुत में भी तेरा या रब? जल्वा नजर आता है। महात्मा नागरीदासजी ने अपने इश्कचमन में लिखा है- कहूँ किया नहिं इश्क का इस्तैमाल सँवार। लौकिक पक्ष से अलौकिक पक्ष की ओर जाता हुआ प्रेमी कहता है- हौं रे पथिक! पखेरू जेहि बन मोर निबाहु। जिससे यहाँ प्रेम का खेल खेलते नहीं बना, वह गँवार उस प्यारे खेलनहार के साथ वहाँ भी कोई खेल न खेल सकेगा। सच मानो भाई! |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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