प्रेम योग -वियोगी हरि पृ. 47

प्रेम योग -वियोगी हरि

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लौकिक से पारलौकिक प्रेम

दिल लगने की सूरत न कहीं देखी हाय?

वाह साहब, वाह! बुतखाने या काबे में बिना प्रेम के वह प्यारा मिलने का नहीं। पहले भाई! कहीं प्रेम करना सीखो, पीछे मंदिर और मसजिद में उसे खोजने जाओ। काबे जाने की तुम्हें जरूरत ही न पड़ेगी। प्रेम मंदिर में ही तुम्हें काबा नजर आ जायेगा, प्रेम पात्र में परमात्मा का पवित्र दर्शन हो जायेगा। कवि कहता है-

बुत में भी तेरा या रब? जल्वा नजर आता है।
बुतखाने के परदे में काबा नजर आता है।।

महात्मा नागरीदासजी ने अपने इश्कचमन में लिखा है-

कहूँ किया नहिं इश्क का इस्तैमाल सँवार।
सो साहिब सों इश्क वह कर क्या सकै गँवार।।

लौकिक पक्ष से अलौकिक पक्ष की ओर जाता हुआ प्रेमी कहता है-

हौं रे पथिक! पखेरू जेहि बन मोर निबाहु।
खेलि चला तेहि बन कहँ, तुम अपने घर जाहु।।- जायसी

जिससे यहाँ प्रेम का खेल खेलते नहीं बना, वह गँवार उस प्यारे खेलनहार के साथ वहाँ भी कोई खेल न खेल सकेगा। सच मानो भाई!

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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प्रेम योग -वियोगी हरि
क्रमांक विषय पृष्ठ संख्या
पहला खण्ड
1. प्रेम 1
2. मोह और प्रेम 15
3. एकांकी प्रेम 25
4. प्रेमी 29
5. प्रेम का अधिकारी 41
6. लौकिक से पारलौकिक प्रेम 45
7. प्रेम में तन्मयता 51
8. प्रेम में अधीरता 56
9. प्रेम में अनन्यता 63
10. प्रेमियों का मत मज़हब 72
11. प्रेमियों की अभिलाषाएँ 82
12. प्रेम व्याधि 95
13. प्रेम व्याधि 106
14. प्रेम प्याला 114
15. प्रेम पंथ 120
16. प्रेम मैत्री 130
17. प्रेम निर्वाह 141
18. प्रेम और विरह 146
19. प्रेमाश्रु 166
20. प्रेमी का हृदय 177
21. प्रेमी का मन 181
22. प्रेमियों का सत्संग 186
23. कुछ आदर्श प्रेमी 190
दूसरा खण्ड
1. विश्व प्रेम 204
2. दास्य 213
3. दास्य और सूरदास 223
4. दास्य और तुलसी दास 232
5. वात्सल्य 243
6. वात्सल्य और सूरदास 253
7. वात्सल्य और तुलसीदास 270
8. सख्य 281
9. शान्त भाव 291
10. मधुर रति 299
11. अव्यक्त प्रेम 310
12. मातृ भक्ति 317
13. प्रकृति में ईश्वर प्रेम 322
14. दीनों पर प्रेम 328
15. स्वदेश प्रेम 333
16. प्रेम महिमा 342
अंतिम पृष्ठ 348

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