प्रेम योग -वियोगी हरि पृ. 49

प्रेम योग -वियोगी हरि

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लौकिक से पारलौकिक प्रेम

अकथ कहानी प्रेम की जानत मजनूँ खूब।
दो तनहूँ जहँ एक भे मन मिलाय महबूब।।- रसखानि

क्या सुना नहीं कि-

खूँ रगे मजनूँ के निकला फस्द जो लैलीकी ली!

मजनूँ के इस प्रेम को प्राकृत कहोगे अथवा अप्राकृत? लौकिक कहोगे या पारलौकिक? हम तो इस प्रेम को प्रेम ही कहेंगे; कौन प्राकृत- अप्राकृत के झगड़े में पड़े। हमारी समझ से तो यही इश्क, इश्क है। इश्क की सच्ची सूरत में क्या तो मजाजी और क्या हकीकी। प्रेम का वास्तविक रूप यही है और प्रेम का अलौकिक आदर्श भी यही है।

क्या करोगे इस खाली दिल का, इस रीते हृदय घट का नाहक लिये लिये फिरते हो अपने इस प्रेम से खाली दिल को। कहीं इसे दे क्यों नहीं देते? इस पर किसी की तसबीर क्यों नहीं खिंचा लेते? इस खाली घर को आबाद क्यों नहीं कर लेते? भाई! जब तक अपने हृदय मंदिर में तुमने परम प्रेम की ज्योति नहीं जला ली, तब तक वहाँ घट घट विहारी राम भी रमने का नहीं। यह जानते हो न कि सूने अंधेरे घर में भूत प्रेत अपना अड्डा जमा बैठते हैं, शैतान वहाँ आकर बसने लगता है। तब क्यों व्यर्थ अपने सरस हृदय को प्रेम शून्य बनाकर अमूल्य जीवन नष्ट कर रहे हो? अपना यह खाली दिल प्रेमी दिलदार को क्यों नहीं सौंप देते? जब तक तुम्हारा दिल प्रेम से खाली है, तभी तक वह खुदी का घर है और यह तो तुम जानते ही हो कि खुदी और खुदा- अहंकार और ईश्वर- एक साथ नहीं रह सकते। यों कब तक बेहोश पड़े रहोगे। खुदी को वहाँ से से निकल कर बेखुदी का आनन्द क्यों नहीं लूटते? पर जब तक तुम किसी के हो नहीं गये, तब तक बेखुदी का मीठा-मीठा मजा मिलने का नहीं। अब भी किसी द्वार पर अड़के बैठ क्यों नहीं जाते? बस, कह दो-

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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प्रेम योग -वियोगी हरि
क्रमांक विषय पृष्ठ संख्या
पहला खण्ड
1. प्रेम 1
2. मोह और प्रेम 15
3. एकांकी प्रेम 25
4. प्रेमी 29
5. प्रेम का अधिकारी 41
6. लौकिक से पारलौकिक प्रेम 45
7. प्रेम में तन्मयता 51
8. प्रेम में अधीरता 56
9. प्रेम में अनन्यता 63
10. प्रेमियों का मत मज़हब 72
11. प्रेमियों की अभिलाषाएँ 82
12. प्रेम व्याधि 95
13. प्रेम व्याधि 106
14. प्रेम प्याला 114
15. प्रेम पंथ 120
16. प्रेम मैत्री 130
17. प्रेम निर्वाह 141
18. प्रेम और विरह 146
19. प्रेमाश्रु 166
20. प्रेमी का हृदय 177
21. प्रेमी का मन 181
22. प्रेमियों का सत्संग 186
23. कुछ आदर्श प्रेमी 190
दूसरा खण्ड
1. विश्व प्रेम 204
2. दास्य 213
3. दास्य और सूरदास 223
4. दास्य और तुलसी दास 232
5. वात्सल्य 243
6. वात्सल्य और सूरदास 253
7. वात्सल्य और तुलसीदास 270
8. सख्य 281
9. शान्त भाव 291
10. मधुर रति 299
11. अव्यक्त प्रेम 310
12. मातृ भक्ति 317
13. प्रकृति में ईश्वर प्रेम 322
14. दीनों पर प्रेम 328
15. स्वदेश प्रेम 333
16. प्रेम महिमा 342
अंतिम पृष्ठ 348

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