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प्रेम योग -वियोगी हरि
लौकिक से पारलौकिक प्रेमअकथ कहानी प्रेम की जानत मजनूँ खूब। क्या सुना नहीं कि- मजनूँ के इस प्रेम को प्राकृत कहोगे अथवा अप्राकृत? लौकिक कहोगे या पारलौकिक? हम तो इस प्रेम को प्रेम ही कहेंगे; कौन प्राकृत- अप्राकृत के झगड़े में पड़े। हमारी समझ से तो यही इश्क, इश्क है। इश्क की सच्ची सूरत में क्या तो मजाजी और क्या हकीकी। प्रेम का वास्तविक रूप यही है और प्रेम का अलौकिक आदर्श भी यही है। क्या करोगे इस खाली दिल का, इस रीते हृदय घट का नाहक लिये लिये फिरते हो अपने इस प्रेम से खाली दिल को। कहीं इसे दे क्यों नहीं देते? इस पर किसी की तसबीर क्यों नहीं खिंचा लेते? इस खाली घर को आबाद क्यों नहीं कर लेते? भाई! जब तक अपने हृदय मंदिर में तुमने परम प्रेम की ज्योति नहीं जला ली, तब तक वहाँ घट घट विहारी राम भी रमने का नहीं। यह जानते हो न कि सूने अंधेरे घर में भूत प्रेत अपना अड्डा जमा बैठते हैं, शैतान वहाँ आकर बसने लगता है। तब क्यों व्यर्थ अपने सरस हृदय को प्रेम शून्य बनाकर अमूल्य जीवन नष्ट कर रहे हो? अपना यह खाली दिल प्रेमी दिलदार को क्यों नहीं सौंप देते? जब तक तुम्हारा दिल प्रेम से खाली है, तभी तक वह खुदी का घर है और यह तो तुम जानते ही हो कि खुदी और खुदा- अहंकार और ईश्वर- एक साथ नहीं रह सकते। यों कब तक बेहोश पड़े रहोगे। खुदी को वहाँ से से निकल कर बेखुदी का आनन्द क्यों नहीं लूटते? पर जब तक तुम किसी के हो नहीं गये, तब तक बेखुदी का मीठा-मीठा मजा मिलने का नहीं। अब भी किसी द्वार पर अड़के बैठ क्यों नहीं जाते? बस, कह दो- |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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