प्रेम योग -वियोगी हरि पृ. 335

प्रेम योग -वियोगी हरि

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स्वदेश प्रेम

'मैं सदेह भारत हूँ। सारा भारत वर्ष मेरा शरीर है। कन्या कुमारी मेरा पैर और हिमालय मेरा सर है। मेरे बालकों की जटाओं से गंगा बह रही है। मेरे सर से ब्रह्मपुत्र और अटक निकली हैं। विंध्याचल मेरा लंगोट है। कारामण्डल मेरा दायाँ और मलावार मेरा बायाँ पैर है। मैं संपूर्ण भारत हूँ। पूर्व और पश्चिम मेरी दोनों भुजाएँ हैं, जिनको फैलाकर मैं अपने प्यारे देश प्रेमियों को गले लगाता हूँ। हिंदुस्तान मेरे शरीर का ढाँचा है, और मेरी आत्मा सारे भारत की आत्मा है। चलता हूँ तो अनुभव करता हूँ कि तमाम हिंदुस्तान चल रहा है, और जब मैं बोलता हूँ, तो तमाम हिन्दुस्तान बोलता है।'

वह आत्माराम रामतीर्थ स्वदेश प्रेम में उन्मत्त होकर एक स्थल पर लिखता है-

'ऐ गुलामी! अरे दासपन! अरी कमजोरी! अब समय आ गया, बाँधो बिस्तर, उठाओ लत्ता पत्ता, छोड़ो मुक्त पुरुषों के देश को। सोने वालो! बादल भी तुम्हारे शोक में रो रहे हैं; बह जाओ गंगा में, डूब मरो समुद्र में, गल जाओ हिमालय में। राम का यह शरीर नहीं गिरेगा, जब तक भारत बहाल न हो लेगा। यह शरीर नाश भी हो जायेगा, तो भी इसकी हड्डियाँ दधीचिकी हड्डियों के समान इंद्र का वज्र बनकर द्वैत के राक्षस को चकनाचूर कर ही देंगी। यह शरीर मर भी जायेगा, तो भी इसका ब्रह्म बाण नहीं चूक सकता।'

जरा आँख फाड़कर देख लें आग की चिनगारियों को, जरा कान का पर्दा हटाकर सुन लें वज्र की इन कड़कों को, विश्व प्रेम का स्वाँग रचने वाले वे विलासी निठल्ले और ज्ञान भक्ति की ध्वजा उड़ाने वाले वे काम कांचन के दास। उस अवधूत का यह मस्ती भरा गीत भी वे सुन लें-

देखा है, प्यारे, मैने दुनिया का कारखाना,
सैरो सफर किया है, छाना है सब जमाना।
अपने वतन से बेहतर कोई नहीं ठिकाना;
खारे वतन को गुल से खुशतर है सबने माना।।
देश भक्ति की क्या ही रंगीली गंगा बह रही है!

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

प्रेम योग -वियोगी हरि
क्रमांक विषय पृष्ठ संख्या
पहला खण्ड
1. प्रेम 1
2. मोह और प्रेम 15
3. एकांकी प्रेम 25
4. प्रेमी 29
5. प्रेम का अधिकारी 41
6. लौकिक से पारलौकिक प्रेम 45
7. प्रेम में तन्मयता 51
8. प्रेम में अधीरता 56
9. प्रेम में अनन्यता 63
10. प्रेमियों का मत मज़हब 72
11. प्रेमियों की अभिलाषाएँ 82
12. प्रेम व्याधि 95
13. प्रेम व्याधि 106
14. प्रेम प्याला 114
15. प्रेम पंथ 120
16. प्रेम मैत्री 130
17. प्रेम निर्वाह 141
18. प्रेम और विरह 146
19. प्रेमाश्रु 166
20. प्रेमी का हृदय 177
21. प्रेमी का मन 181
22. प्रेमियों का सत्संग 186
23. कुछ आदर्श प्रेमी 190
दूसरा खण्ड
1. विश्व प्रेम 204
2. दास्य 213
3. दास्य और सूरदास 223
4. दास्य और तुलसी दास 232
5. वात्सल्य 243
6. वात्सल्य और सूरदास 253
7. वात्सल्य और तुलसीदास 270
8. सख्य 281
9. शान्त भाव 291
10. मधुर रति 299
11. अव्यक्त प्रेम 310
12. मातृ भक्ति 317
13. प्रकृति में ईश्वर प्रेम 322
14. दीनों पर प्रेम 328
15. स्वदेश प्रेम 333
16. प्रेम महिमा 342
अंतिम पृष्ठ 348

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