प्रेम योग -वियोगी हरि
स्वदेश प्रेम'मैं सदेह भारत हूँ। सारा भारत वर्ष मेरा शरीर है। कन्या कुमारी मेरा पैर और हिमालय मेरा सर है। मेरे बालकों की जटाओं से गंगा बह रही है। मेरे सर से ब्रह्मपुत्र और अटक निकली हैं। विंध्याचल मेरा लंगोट है। कारामण्डल मेरा दायाँ और मलावार मेरा बायाँ पैर है। मैं संपूर्ण भारत हूँ। पूर्व और पश्चिम मेरी दोनों भुजाएँ हैं, जिनको फैलाकर मैं अपने प्यारे देश प्रेमियों को गले लगाता हूँ। हिंदुस्तान मेरे शरीर का ढाँचा है, और मेरी आत्मा सारे भारत की आत्मा है। चलता हूँ तो अनुभव करता हूँ कि तमाम हिंदुस्तान चल रहा है, और जब मैं बोलता हूँ, तो तमाम हिन्दुस्तान बोलता है।' वह आत्माराम रामतीर्थ स्वदेश प्रेम में उन्मत्त होकर एक स्थल पर लिखता है- 'ऐ गुलामी! अरे दासपन! अरी कमजोरी! अब समय आ गया, बाँधो बिस्तर, उठाओ लत्ता पत्ता, छोड़ो मुक्त पुरुषों के देश को। सोने वालो! बादल भी तुम्हारे शोक में रो रहे हैं; बह जाओ गंगा में, डूब मरो समुद्र में, गल जाओ हिमालय में। राम का यह शरीर नहीं गिरेगा, जब तक भारत बहाल न हो लेगा। यह शरीर नाश भी हो जायेगा, तो भी इसकी हड्डियाँ दधीचिकी हड्डियों के समान इंद्र का वज्र बनकर द्वैत के राक्षस को चकनाचूर कर ही देंगी। यह शरीर मर भी जायेगा, तो भी इसका ब्रह्म बाण नहीं चूक सकता।' जरा आँख फाड़कर देख लें आग की चिनगारियों को, जरा कान का पर्दा हटाकर सुन लें वज्र की इन कड़कों को, विश्व प्रेम का स्वाँग रचने वाले वे विलासी निठल्ले और ज्ञान भक्ति की ध्वजा उड़ाने वाले वे काम कांचन के दास। उस अवधूत का यह मस्ती भरा गीत भी वे सुन लें- देखा है, प्यारे, मैने दुनिया का कारखाना, |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रमांक | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज