प्रेम योग -वियोगी हरि पृ. 334

प्रेम योग -वियोगी हरि

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स्वदेश प्रेम

जिसकी रज में लोट लोटकर बड़े हुए हैं;
घुटनों के बल सरक सरककर खड़े हुए हैं।
परम हंस सम बाल्य काल में सब सुख पायें;
जिसके कारण धूल भरे हीरे कहलाये।
हम खेले कूदे हर्षयुक्त जिसकी प्यारी गोद में;
हे मातृभूमि, तुझको निरख मग्न क्यों न हों मोद में?- मैथिलीशरण गुप्त

जिसके दिल में देश के लिए दर्द नहीं, वह मुर्दा है। व दिल जिन्दादिल कैसे कहा जा सकता है?

जिसको न निज गौरव तथा निज देश का अभिमान है।
वह वर वह, नरपशु निरा है, और मृतक समान है।।

जिसने हुब्बे वतन (स्वदेश प्रेम) की मस्ती में झूम झूमकर यह नहीं गा लिया कि-

गुँचे हमारे दिल के इस बाग में खिलेंगे,
इस खाकसे उठे हैं, इस खाक में मिलेंगे।

उस मुर्दा दिल को प्रेम रस की मिठास कहाँ नसीब हो सकती है? अपने देश की पवित्र खाक पर जिसने अपने जीवन की प्यारी प्यारी घड़ियाँ नहीं चढ़ा दीं, वह समझ लो, मरते दम तक प्रेम रस का प्यासा ही रहा। न वह विश्व प्रेम ही पा सकेगा और न ईश्वर प्रेम ही साध सकेगा। वह मस्त स्वामी राम, जो अपना दिल विश्व प्रेम के गाढ़े रंग में रंग चुका था, देखो, भारत भक्ति की गंगा में डुबकियाँ लगाता हुआ क्या कह रहा है-

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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प्रेम योग -वियोगी हरि
क्रमांक विषय पृष्ठ संख्या
पहला खण्ड
1. प्रेम 1
2. मोह और प्रेम 15
3. एकांकी प्रेम 25
4. प्रेमी 29
5. प्रेम का अधिकारी 41
6. लौकिक से पारलौकिक प्रेम 45
7. प्रेम में तन्मयता 51
8. प्रेम में अधीरता 56
9. प्रेम में अनन्यता 63
10. प्रेमियों का मत मज़हब 72
11. प्रेमियों की अभिलाषाएँ 82
12. प्रेम व्याधि 95
13. प्रेम व्याधि 106
14. प्रेम प्याला 114
15. प्रेम पंथ 120
16. प्रेम मैत्री 130
17. प्रेम निर्वाह 141
18. प्रेम और विरह 146
19. प्रेमाश्रु 166
20. प्रेमी का हृदय 177
21. प्रेमी का मन 181
22. प्रेमियों का सत्संग 186
23. कुछ आदर्श प्रेमी 190
दूसरा खण्ड
1. विश्व प्रेम 204
2. दास्य 213
3. दास्य और सूरदास 223
4. दास्य और तुलसी दास 232
5. वात्सल्य 243
6. वात्सल्य और सूरदास 253
7. वात्सल्य और तुलसीदास 270
8. सख्य 281
9. शान्त भाव 291
10. मधुर रति 299
11. अव्यक्त प्रेम 310
12. मातृ भक्ति 317
13. प्रकृति में ईश्वर प्रेम 322
14. दीनों पर प्रेम 328
15. स्वदेश प्रेम 333
16. प्रेम महिमा 342
अंतिम पृष्ठ 348

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