प्रेम योग -वियोगी हरि
अव्यक्त प्रेमतुम तो प्रेम को इस भाँति छिपा लो, जैसे माता अपने गर्भस्थ बालक को बड़े यत्न से छिपाये रहती है, जरा भी उसे ठेस लगी कि वह क्षीण हुआ- जैसे माता गर्भ को राखै जतन बनाइ। प्रेम का वास्तविक रूप तुम प्रकाशित भी तो नहीं कर सकते। हाँ, उसे किस प्रकार प्रकाश में लाओगे? प्रेम तो गूँगा होता है। इश्क को बेजुबान ही पाओगे। ऊँचे प्रेमियों की तो मस्तानी आँखें बोलती हैं, जुबान नहीं। कहा भी है- अर्थात्, प्रेम की जिह्वा नेत्रों में होती है। क्या रघूत्तम राम का विदेह नन्दिनी पर कुछ कम प्रेम था? क्या वे मारुति के द्वारा जनक तनया को यह प्रेमाकुल संदेश न भेज सकते थे कि ‘प्राण प्रिये! तुम्हारे असह्य वियोग में मेरे प्राण पक्षी अब ठहरेंगे नहीं; हृदेश्वरी! तुम्हारे विरह ने मुझे आज प्राण हीन सा कर दिया है!’ क्या वे आजकल के विरह विह्वल नवल नायक की भाँति दस पाँच लम्बे चौड़े प्रेम पत्र अपनी प्रेयसी को न भेज सकते थे! सब कुछ कर सकते थे, पर उनका प्रेम दिखाऊ तो था नहीं। उन्हें क्या पड़ी थी जो प्रेम का रोना रोते फिरते! उनकी प्रीति तो एक सत्य, अनन्त और अव्यक्त प्रीति थी, हृदय में धधकती हुई प्रीति की एक ज्वाला थी। इससे उनका संदेशा तो इतने में ही समाप्त हो गया कि- तत्व प्रेम कर मम अरु तोरा। जानत प्रिया एक मन मोरा।। इस ‘इतने में’ हो उतना सब भरा हुआ है, जितने का किसी प्रीति रसके चखने हारे को अपने अंतस्तल में अनुभव हो सकता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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