प्रेम योग -वियोगी हरि
अव्यक्त प्रेमअर्थात्, अव्यक्त प्रेम ही पवित्र होता है। जिसके जिगर में कोई कसक है वह दुनिया में गली गली चिल्लाता नहीं फिरता। जहाँ तहाँ पुकारते तो वे ही फिरा करते हैं, जिनके दिल में प्रेम की वह रसभरी हूक नहीं उठा करती। ऐसे बने हुए प्रेमियों को प्रेमदेव का दर्शन कैसे हो सकता है? महात्मा दादू दयाल कहते हैं- अंदर पीर न ऊभरै, बाहर करै पुकार। किसी को यह सुनाने से क्या लाभ कि मैं तुम्हें चाहता हूँ, तुम पर मेरा प्रेम है? सच्चे प्रेमियों को ऐसी विज्ञापन बाजी से क्या मिलेगा? तुम्हारा यदि किसी पर प्रेम है, तो उसे अपनी हृदय वाटिका में ही अंकुरित पल्लवित प्रफुल्लित और परिफलित होने दो। जितना ही तुम अपने प्रिय को छिपाओग, उतना ही वह प्रगल्भ और पवित्र होता जायेगा। बाहर का दरवाजा बंद करके तुम तो भीतर का द्वार खोल दो। तुम्हारा प्यारा तुम्हारे प्रेम को जानता हो तो अच्छा, और उससे बेखबर हो तो भी अच्छा। तुम्हारे बाहर के शोरगुल को वह कभी पसंद न करेगा। तुम तो दिल का दरवाजा खोलकर बेखबर हो बैठ जाओ। तुम्हारा प्यारा राम जरूर तुम्हें मिलेगा- सुमिरन सुरत लगाइकै, मुखतें कछू न बोल। प्रीति का ढिंढोरा पीटने से कोई लाभ? जो तेरे घट प्रेम है, तौ कहि कहि न सुनाव। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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