प्रेम योग -वियोगी हरि
अव्यक्त प्रेमसो, बस- प्रीति की गति कौन गाता है, प्रेम का बाजा कहाँ बजता है और कौन सुनता है, इन सब भेदों को या तो अपना चाह भरा चित्त जानता है या फिर अपना वह प्रियतम। इस रहस्य को और कौन जानेगा? सब रग ताँत, रवाब तन, बिरह बजावै नित्त। जायसी ने भी खूब कहा है- हाड़ भये सब किंगरी, नसें भईं सब ताँति। प्रेम गोपन पर किसी संस्कृत कवि की एक सूक्ति है- प्रेमा द्वयो रसिकयोरपि दीप एव |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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