प्रेम योग -वियोगी हरि
मधुर रतिलुटै आत्म सरबसु उमंगै तहँ प्रेम पयोधि अपार। ब्रह्म और जीवात्मा का यह सरस विहार ही नित्य है और सब अनित्य है। सभी कुछ नाशवान् है, केवल यह मधुर मिलन ही अविनश्वर है- चंद्र घटै, सूरज घटै, घटै त्रिगुन बिस्तार। इस विहा की अनन्य अधिकारिणी तो, बस, व्रजांगनाएँ ही थीं। क्षमा करें बाह्य श्रृंगारोपासक सहृदय सज्जन वृन्द, मैं प्रेममूर्ति गोपिकाओं की मधुरा रति को किसी और ही प्रकाश में देखता हूँ। मेरा उन रसिकों से गहरा मतभेद है। किस चित्रकार में सामर्थ्य है, जो ब्रजगोपिकाओं के अलौकिक प्रेम का यथार्त चित्र खींच सके। धन्य है उनके प्रेम व्रत साधन को! जो ब्रत मुनिवर ध्यावहीं, पै पावहिं नहिं पार। तभी तो रसखानि ने उनकी प्रीति की यहाँ तक सराहना की है- |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रमांक | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज