प्रेम योग -वियोगी हरि पृ. 307

प्रेम योग -वियोगी हरि

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मधुर रति

लुटै आत्म सरबसु उमंगै तहँ प्रेम पयोधि अपार।
जल थल नम मधुमय, ह्वै जावै झरै सुधाकर सार।।

ब्रह्म और जीवात्मा का यह सरस विहार ही नित्य है और सब अनित्य है। सभी कुछ नाशवान् है, केवल यह मधुर मिलन ही अविनश्वर है-

चंद्र घटै, सूरज घटै, घटै त्रिगुन बिस्तार।
दृढ़ब्रत हित हरिबंस कौ घटै न नित्य बिहार।।

इस विहा की अनन्य अधिकारिणी तो, बस, व्रजांगनाएँ ही थीं। क्षमा करें बाह्य श्रृंगारोपासक सहृदय सज्जन वृन्द, मैं प्रेममूर्ति गोपिकाओं की मधुरा रति को किसी और ही प्रकाश में देखता हूँ। मेरा उन रसिकों से गहरा मतभेद है। किस चित्रकार में सामर्थ्य है,

जो ब्रजगोपिकाओं के अलौकिक प्रेम का यथार्त चित्र खींच सके। धन्य है उनके प्रेम व्रत साधन को!

जो ब्रत मुनिवर ध्यावहीं, पै पावहिं नहिं पार।
सो ब्रत साध्यौ गोपिका, छाड़ि बिषय बिस्तार।। - सूर

तभी तो रसखानि ने उनकी प्रीति की यहाँ तक सराहना की है-

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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प्रेम योग -वियोगी हरि
क्रमांक विषय पृष्ठ संख्या
पहला खण्ड
1. प्रेम 1
2. मोह और प्रेम 15
3. एकांकी प्रेम 25
4. प्रेमी 29
5. प्रेम का अधिकारी 41
6. लौकिक से पारलौकिक प्रेम 45
7. प्रेम में तन्मयता 51
8. प्रेम में अधीरता 56
9. प्रेम में अनन्यता 63
10. प्रेमियों का मत मज़हब 72
11. प्रेमियों की अभिलाषाएँ 82
12. प्रेम व्याधि 95
13. प्रेम व्याधि 106
14. प्रेम प्याला 114
15. प्रेम पंथ 120
16. प्रेम मैत्री 130
17. प्रेम निर्वाह 141
18. प्रेम और विरह 146
19. प्रेमाश्रु 166
20. प्रेमी का हृदय 177
21. प्रेमी का मन 181
22. प्रेमियों का सत्संग 186
23. कुछ आदर्श प्रेमी 190
दूसरा खण्ड
1. विश्व प्रेम 204
2. दास्य 213
3. दास्य और सूरदास 223
4. दास्य और तुलसी दास 232
5. वात्सल्य 243
6. वात्सल्य और सूरदास 253
7. वात्सल्य और तुलसीदास 270
8. सख्य 281
9. शान्त भाव 291
10. मधुर रति 299
11. अव्यक्त प्रेम 310
12. मातृ भक्ति 317
13. प्रकृति में ईश्वर प्रेम 322
14. दीनों पर प्रेम 328
15. स्वदेश प्रेम 333
16. प्रेम महिमा 342
अंतिम पृष्ठ 348

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