प्रेम योग -वियोगी हरि
शान्त भावथा कौन सा नख्ल जिसने देखी न खिजां; और सुनो- पानी महँ जस बुल्ला तस यह जग उतराइ। हाँ, यह तो प्रत्यक्ष सत्य है। तो अब क्या करें? ओह! पश्चाताप की यह भीषणाकृति मूर्ति! आछे दिन पाछे गये, हरिसे किया न हेत। यह निराशा क्यों? अब भी कुछ समय है। प्रेम पुरी तक हम अब भी पहुँच सकते हैं। उस ‘सत्’ को, उस आत्म प्यारे को हम अब भी खोज सकते हैं! पर हमें मरजीवा होना पड़ेगा। क्योंकि उसे खोज निकालना हँसी खेल नहीं। प्रेमी जायसी ने कहा है- कटु है पियकर खोज, जो पावा सो मरजिया। ऐसा है उस प्ये मालिका मुकाम। न वहाँ हँसी है, न रोना; न जीना है, न मरना। कौन जाने, उसकी वह नगरी कैसी है। वह ऐसी कुछ बहुत दूर भी नहीं है। इस दिल के अंदर ही तो है। मौज में मारो तो जरा एक गोता- |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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