प्रेम योग -वियोगी हरि पृ. 293

प्रेम योग -वियोगी हरि

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शान्त भाव

था कौन सा नख्ल जिसने देखी न खिजां;
वह कौन से गुल खिले, जो मुरझा न गये। - अनीस

और सुनो-

पानी महँ जस बुल्ला तस यह जग उतराइ।
एकहि आवत देखिये, एक है जात बिलाइ।। - जायसी

हाँ, यह तो प्रत्यक्ष सत्य है। तो अब क्या करें? ओह! पश्चाताप की यह भीषणाकृति मूर्ति!

आछे दिन पाछे गये, हरिसे किया न हेत।
अब पछताये होत क्या, चिड़ियाँ चुग गइँ खेत।। - कबीर

यह निराशा क्यों? अब भी कुछ समय है। प्रेम पुरी तक हम अब भी पहुँच सकते हैं। उस ‘सत्’ को, उस आत्म प्यारे को हम अब भी खोज सकते हैं! पर हमें मरजीवा होना पड़ेगा। क्योंकि उसे खोज निकालना हँसी खेल नहीं। प्रेमी जायसी ने कहा है-

कटु है पियकर खोज, जो पावा सो मरजिया।
तहँ नहिं हँसी न रोज, ‘मुहमद’ ऐसे ठावँ वह।।

ऐसा है उस प्ये मालिका मुकाम। न वहाँ हँसी है, न रोना; न जीना है, न मरना। कौन जाने, उसकी वह नगरी कैसी है। वह ऐसी कुछ बहुत दूर भी नहीं है। इस दिल के अंदर ही तो है। मौज में मारो तो जरा एक गोता-

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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प्रेम योग -वियोगी हरि
क्रमांक विषय पृष्ठ संख्या
पहला खण्ड
1. प्रेम 1
2. मोह और प्रेम 15
3. एकांकी प्रेम 25
4. प्रेमी 29
5. प्रेम का अधिकारी 41
6. लौकिक से पारलौकिक प्रेम 45
7. प्रेम में तन्मयता 51
8. प्रेम में अधीरता 56
9. प्रेम में अनन्यता 63
10. प्रेमियों का मत मज़हब 72
11. प्रेमियों की अभिलाषाएँ 82
12. प्रेम व्याधि 95
13. प्रेम व्याधि 106
14. प्रेम प्याला 114
15. प्रेम पंथ 120
16. प्रेम मैत्री 130
17. प्रेम निर्वाह 141
18. प्रेम और विरह 146
19. प्रेमाश्रु 166
20. प्रेमी का हृदय 177
21. प्रेमी का मन 181
22. प्रेमियों का सत्संग 186
23. कुछ आदर्श प्रेमी 190
दूसरा खण्ड
1. विश्व प्रेम 204
2. दास्य 213
3. दास्य और सूरदास 223
4. दास्य और तुलसी दास 232
5. वात्सल्य 243
6. वात्सल्य और सूरदास 253
7. वात्सल्य और तुलसीदास 270
8. सख्य 281
9. शान्त भाव 291
10. मधुर रति 299
11. अव्यक्त प्रेम 310
12. मातृ भक्ति 317
13. प्रकृति में ईश्वर प्रेम 322
14. दीनों पर प्रेम 328
15. स्वदेश प्रेम 333
16. प्रेम महिमा 342
अंतिम पृष्ठ 348

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