काल्ह करै सो आज कर, आज करै सो अब।
पल में परलै होइगी, बहुरि करैगा कब्ब।।
झूठे सुख को सुख कहै, मात है मन मोद।
जगत चबेना काल का, कुछ मुख में, कुछ गोद में।। -कबीर
अहो! प्रकृति का यह प्रलयंकर परिवर्तन!
आज गर्वोन्नत हर्म्य अपार,
रत्न दीपावलि, मंत्रोचार;
उलूकों के कल मग्न विहार,
झिल्लियों की होती झनकार!
दिवस निसिका यह विश्व विशाल,
मेघ मारुत का माया जाल। - सुमित्रानंद पंत
ओह! क्या से क्या हो गया है! हाय!
जिनके महलों में हजारों रंग के फानूस थे,
झाड़ उनकी कब्र पर है औ निशां कुछ भी नहीं!
हम जैसे समझदार इन चोटीली चेतावनियों पर क्यों ध्यान देने चले! सुनो, फिर कोई चेता रहा है-