प्रेम योग -वियोगी हरि
शान्त भाव‘सुंदर’ अंदर पैठि, करि, दिल में गोता मार। ऐं! यह बात है! पढ़ा सुना तो हमने कुछ और ही था। बड़े धोखे में रहे! इल्म से कुछ भी हासिल न कर सके। यह खूब रहा वाह! हम जानते थे, इल्म से कुछ जानेंगे; यह देखो, हमारा हृदय हारी राम रोम रोम में रम रहा है। क्या खूब बहार है उसकी ललित लीला में। आँखें बन्द कर तनिक देखो तो उस खिलाड़ी का नूर है। अहा! दूध माँझ जस घीव है, समुद माँझ जस मोति। यह है वह ज्योति, यह है वह प्रकाश, जिसमें आत्म स्वरूप का दर्शन होता है। इसी प्रेम दीपक के उँजेले में ब्रह्म जीव के बीच में पड़ी हुई युगों की गाँठ खोली जा सकती है। क्या ही दिव्य प्रकाश है हमारे हृदय रमण राम के प्रेम का! इस प्रेम ज्योति पर क्या न्योछावर कर दें! बोलो, इस प्यारे राम के चरणों पर क्या भेंट चढ़ा दें! अरे, चढ़ाने को बचा ही क्या है? यहाँ तो अपने आप का भी पता नहीं है। खूब खोजा और खूब पाया! हाँ, और क्या कहें अब- |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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