प्रेम योग -वियोगी हरि
सख्यअपने अनन्य सखा कृष्ण के विराट् रूप से भयभीत बेचारे अर्जुन ने तो अपनी विगत धृष्टताओं के लिए उनसे क्षमायाचना तक की थी- सखेति मत्वा प्रसभं यदुक्तं आपको अपना केवल एक मित्र समझकर 'अरे कृष्ण! ओ यादव! हे सखा!' इत्यादि भूल से या प्यार से, आपकी इस महामहिमा को बिना जाने, जो कुछ कह डाला हो; अथवा यदि मैंने हँसने हँसाने के लिए कभी खेल में, शय्या पर, बैठने में या भोजन करने में, हे अच्युत! आपके प्रति कोई अशिष्टतापूर्ण व्यवहार अकेले में अथवा अपने मित्रों के सामने किया हो, हे अप्रमेय! उसके लिए आप कृपाकर मुझे क्षमा प्रदान करें। खैर, अर्जुन ने माफी माँग तो ली, पर श्रीकृष्ण के अतुल ऐश्वर्य में उसका प्रेमी मन रमा नहीं। उनका अत्यंत उग्र रूप देख और उनके प्रलयंकर मुख से 'कालोऽस्मि' सुनकर बेचारा घबरा सा गया। उसके हृदय की वह सख्य रसोत्पन्न शान्ति न जाने कहाँ चली गयी। भय से काँपता हुआ अंत में, बोला- तेनैव रूपेण चतुर्भुजेन |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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