प्रेम योग -वियोगी हरि
सख्यहे सहस्रबाहो! हे विश्वमूर्ते! आप तो अब अपना वही सुचारू चतुर्भुज रूप फिर धारण कर लें। मेरा चंचल चित्त तो आपके उसी सुंदर रूप में रमता है। अर्जुन के मन की बात पूरी हो गयी। विश्वमूर्ति परमात्मा चतुर्भुज श्यामसुंदर कृष् में परिणत हो गया। भयातुर सखा का तब कहीं जी में जी आया। ऐश्वर्य गिरि से उतरकर अर्जुन फिर माधुर्य सरोवर में अतृप्त अवगाहन करने लगा। बोला, वाह यार, खूब छकाया! मित्र, द्वेष्टदं मानुषं रूपं तव सौभ्यं जनार्दन। हे जनार्दन, तुम्हारा यह सुंदर सरल मानव रूप देखकर अब कहीं मैं होश में आया हूँ। महिमामय, तुम्हारी वह भी एक लीला थी, और यह भी एक लीला है। पर मैं तो, लीलामय, तुम्हारे इस माधुर्य पूरित सख्य रस का ही चिरपिपासु हूँ। मुझे तो 'भैया कृष्ण' कहने में जो अलौकिक आनन्द मिलता है, वह 'विश्वमूर्ति' कहने में प्राप्त नहीं होता। कुछ समझे, मेरे प्यारे सारथी? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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