प्रेम योग -वियोगी हरि
वात्सल्य और तुलसीदाससो तनु राखि कब मैं काहा। जचेहि न प्रेम पनु मोर निबाहा।। कैसा फल? ऐसा कि- जियत राम बिधु बदन निहारा। राम बिरह करि मरन सँवारा।। सूरदास भी कह गये हैं- प्रगट प्रीति दसरथ प्रतिपाली प्रीतम के बनवास। प्रिय पुत्र की बाल स्मृति ने आज कौशल्या को उन्मादिनी बना दिया है। एक के बाद एक स्मरण उनके हृदय सागर में तरंग की भाँति उठ रहा है। कभी अपने प्यारे रमैया की छोटी सी धनुहियाँ उठाकर छाती से लगा लेती हैं, तो कभी अपने कुँवर की प्यारी पनहियाँ आँखों से लगाती हैं! कभी बड़े सबेरे खाली पलंग के पास जाकर, पहले की तरह, प्यार से कहती हैं- ‘भैया, उठो तुम्हारी माता तुम्हारे मुखचंद्र पर न्योछावर हो रही है। देखो, कबसे तुम्हारे साथ खेलने को तुम्हारे छोटे भाई और सखा द्वार पर खड़े हैं।’ और, कभी आप ही आप यह कहने लगती हैं कि- ‘भैया, खेलते खेलते तुम्हें कितनी देर हो गयी हैं! अब पिता के पास जाओ, और अपने छोटे भाइयों को बुलाकर जो अच्छा लगे सो सब साथ बैठकर कलेवा कर लो।’ कैसे हृदयद्रावक करुण स्मरण हैं! |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रमांक | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज