प्रेम योग -वियोगी हरि
वात्सल्य और तुलसीदासऔर, महाराज दशरथ का वात्सल्य स्नेह? क्या कहना, वह तो संसार में अनुपम है, अद्वितीय है। वास्तव में- जो प्राण प्रिय राम किसी दिन अपने धूलि धूसरित अंगों से दशरथ की गोद मैली करते थे, उन्हीं का यह संदेश लेकर आज मंत्री सुमंत्र अयोध्या को लौटा है- करबि पाय परि विनय बहोरी। तात, करिय जनि चिंता मोरी।। जिन कानों से महाराज दशरथ ने कभी अपने प्यारे रमैया के मीठे तोतले वचन सुने थे, उन्हीं कानों से उन्हें आज यह सुनन पड़ रहा है कि- सो, दशरथ ने प्रीति की परम मर्यादा की रक्षा अपने प्राण त्याग से ही की। उन्हें यह अनुभव हो गया कि यदि पुत्रविरह की अवधि तक इन पापी प्राणों को रखता हूँ, तो अवश्यमेव जगतीतल से प्रीति का नाम उठ जायेगा और पवित्र वात्सल्य कलंकित हो जायेगा- ऐसे सुतके विरह, अवधि लों, जौ राखौं तन प्रान। अतएव, मेरे पुनीत प्रेम की प्रामाणिकता मेरे एक प्राण त्याग से ही सिद्ध होगी। आपने किया भी वही! छटपटाते हुए, करवट बदलकर बोले- |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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