प्रेम योग -वियोगी हरि पृ. 262

प्रेम योग -वियोगी हरि

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वात्सल्य और सूरदास

इतने में कहीं से माखन चोर के दाऊ आ पहुँचे। उन्हें देख गोपाल और भी हिलक हिलकर रोने लगे। हलधर ने स्नेह से भैया को गले से तो लगा लिया, पर माता के डर से बंधन न खोल सके। बलराम का गला भर आया, आँखें डबडबा आयीं, बोले-

मैं बरज्यो कै बार कन्हैया,
भली करी, दोउ हाथ बँधाये।

माता के चरणों पर गिरकर बलराम हा हा करने लगे-

स्यामहि छोड़ि, मोहि बरु बाँधे।

मैया, मेरे भैया को छोड़ दे। बदले में तू मुझे बाँध ले। मेरे छोटे से कन्हैया ने तेरा कितना दूध दही फैला दिया है, जो तू उसे इतनी डाँट दपट बता रही है? आज तेरा हृदय, री मैया, कैसा हो गया! इस हृदय दुलारे प्यारे गोपाल को बाँधकर आज तूने यह किया क्या है? अरी, तुझे माखन तो प्यारा हुआ और यह व्रजबर के प्राणों का प्यारा, प्यारा न हुआ? आज तू पगली तो नहीं हो गयी है मैया? छोड़ दे मेरे प्यारे गोपाल को मैया!

बलराम का भी किता ऊँचा वात्सल्य प्रेम है। लोग तो यह कहते हैं कि उस दिन यमलार्जुन, जिनसे श्रीकृष्ण बाँधे गये थे, शाप मुक्त होकर आप ही गिर पड़े थे, पर मेरी समझ में तो यह आता है कि बलराम के प्रबलतम स्नेह ने ही उन वृक्षों को गिराकर कृष्ण को बंधन विमुक्त किया था। वात्सल्य प्रेम जो न करे सो थोड़ा।

आज अक्रूर, वस्तुतः क्रूर, के साथ राम और कृष्ण मथुरा को प्रयाण कर रहे हैं। जिसने कभी हरि हरि हलधर की जोड़ी आँखों की ओट नहीं की, वह यशोदा आज उन्हें मथुरा की ओर जाते हुए देखेगी! माता की छाती फट रही है, आँखों के आगे अँधेरा सा छा रहा है, गला भर भर आता है। इस व्रज में आज कोई ऐसा हितू है, जो मेरे बच्चों को मेरे हिये के हीरों को मथुरा जाने से रोक रक्खे?

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

प्रेम योग -वियोगी हरि
क्रमांक विषय पृष्ठ संख्या
पहला खण्ड
1. प्रेम 1
2. मोह और प्रेम 15
3. एकांकी प्रेम 25
4. प्रेमी 29
5. प्रेम का अधिकारी 41
6. लौकिक से पारलौकिक प्रेम 45
7. प्रेम में तन्मयता 51
8. प्रेम में अधीरता 56
9. प्रेम में अनन्यता 63
10. प्रेमियों का मत मज़हब 72
11. प्रेमियों की अभिलाषाएँ 82
12. प्रेम व्याधि 95
13. प्रेम व्याधि 106
14. प्रेम प्याला 114
15. प्रेम पंथ 120
16. प्रेम मैत्री 130
17. प्रेम निर्वाह 141
18. प्रेम और विरह 146
19. प्रेमाश्रु 166
20. प्रेमी का हृदय 177
21. प्रेमी का मन 181
22. प्रेमियों का सत्संग 186
23. कुछ आदर्श प्रेमी 190
दूसरा खण्ड
1. विश्व प्रेम 204
2. दास्य 213
3. दास्य और सूरदास 223
4. दास्य और तुलसी दास 232
5. वात्सल्य 243
6. वात्सल्य और सूरदास 253
7. वात्सल्य और तुलसीदास 270
8. सख्य 281
9. शान्त भाव 291
10. मधुर रति 299
11. अव्यक्त प्रेम 310
12. मातृ भक्ति 317
13. प्रकृति में ईश्वर प्रेम 322
14. दीनों पर प्रेम 328
15. स्वदेश प्रेम 333
16. प्रेम महिमा 342
अंतिम पृष्ठ 348

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