प्रेम योग -वियोगी हरि पृ. 261

प्रेम योग -वियोगी हरि

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वात्सल्य और सूरदास

बस, फिर क्या-

डारि साँटि, मुसुकाय तबै गहि सुतकों कंठ लगायौ।।
अहोभाग्य! अहोभाग्य!! धन व्रज वासियों!
बाल बिनोद मोद मन मोह्यौ, भगति प्रताप देखायौ।
‘सूरदास’ प्रभु जसुमति के सुख सिव बिरंचि बौरायौ।।

एक दिन उस माखन चोर पर बुरी बीती। ऊधम की भी कोई हद होती है। लो, आज उस हठीले गोपाल ने सारा दही लुढ़का दिया, मथानी की रस्सी तोड़ दी, छाछ का मटका फोड़ डाला और माखन भी सब जूठा कर दिया। यशोदा बेचारी कहाँ तक गम खाय। इतनी सब शैतानी करके आप मैया को बिराते हुए लम्बे भी हो गये। भागे तो बहुत, पर किसी तरह पकड़ में आ गये। फिर क्या, बड़ी मार पड़ी। और ऊखल से बाँध भी दिये गये। थप्पड़ों से गाल लाल हो गये, और कान भी उमेठे गये। बहुत रोये, बहुत चिल्लाये, पर माता को नेक भी दया न आयी। जो नित्य उलाहना देने आती थीं, वे ही गोपियाँ आज यशोदा से कह रही हैं-

यशोदा, तेरो भलो हियो है माई!
कमल नयन माखन के कारन बाँधे ऊखल लाई।।
जो संपदा देव मुनि दुरलभ, सपनेहु देइ न देखाई।
याही ते तू गरब भुलानी, घर बैठे निधि पाई।।
सुत काहूकौ रोवत देखति, दौरि लेति हिय लाई।
 अब अपने घर के लरिका पै इती कहा जड़ताई।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

प्रेम योग -वियोगी हरि
क्रमांक विषय पृष्ठ संख्या
पहला खण्ड
1. प्रेम 1
2. मोह और प्रेम 15
3. एकांकी प्रेम 25
4. प्रेमी 29
5. प्रेम का अधिकारी 41
6. लौकिक से पारलौकिक प्रेम 45
7. प्रेम में तन्मयता 51
8. प्रेम में अधीरता 56
9. प्रेम में अनन्यता 63
10. प्रेमियों का मत मज़हब 72
11. प्रेमियों की अभिलाषाएँ 82
12. प्रेम व्याधि 95
13. प्रेम व्याधि 106
14. प्रेम प्याला 114
15. प्रेम पंथ 120
16. प्रेम मैत्री 130
17. प्रेम निर्वाह 141
18. प्रेम और विरह 146
19. प्रेमाश्रु 166
20. प्रेमी का हृदय 177
21. प्रेमी का मन 181
22. प्रेमियों का सत्संग 186
23. कुछ आदर्श प्रेमी 190
दूसरा खण्ड
1. विश्व प्रेम 204
2. दास्य 213
3. दास्य और सूरदास 223
4. दास्य और तुलसी दास 232
5. वात्सल्य 243
6. वात्सल्य और सूरदास 253
7. वात्सल्य और तुलसीदास 270
8. सख्य 281
9. शान्त भाव 291
10. मधुर रति 299
11. अव्यक्त प्रेम 310
12. मातृ भक्ति 317
13. प्रकृति में ईश्वर प्रेम 322
14. दीनों पर प्रेम 328
15. स्वदेश प्रेम 333
16. प्रेम महिमा 342
अंतिम पृष्ठ 348

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