प्रेम योग -वियोगी हरि पृ. 259

प्रेम योग -वियोगी हरि

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वात्सल्य और सूरदास

गोपालहि माखन खान दै।
सुन री सखी कोऊ मति बोलै, बदन दही लपटान दै।।

अरी, यह छबि बार बार देखने को तो मिलेगी नहीं। ओट में हो, सखी, जी भरकर देख क्यों नहीं लेती, अहा!

गोपाल दुरे हैं माखन खात।
देखि सखी, सोभा जु बनी है, स्याम मनोहर गात।।
उठि अवलोकि, ओट ठाढ़ी ह्वै, क्यों न नयन फल लेत?
चकित चहूँ चितवत लै माखन, और सखन कों देत।।

उस दिन खूब दही माखन चुराया और खाया गया। फिर तो घर घर यही लीला होने लगी। आज एक घर में चोरी हुई, तो कल किसी दूसरे में। अब तो यशोदा रानी के पास नित्य नये उलाहने भी पहुँचने लगे। पर उन्हें इन चोरियों पर विश्वास न हुआ। पाँच साढ़े पाँच वर्ष का बालक कहीं चोरी कर सकता है? यह सब बनायी हुई बातें हैं। कृष्ण की माखन चोरी पर, लो, कैसे विश्वास किया जाय।

मेरो गोपाल तनिकसो,
कहा करि जानै दधिकी चोरी।
हाथ नचावति आवति ग्वालिनी, जो यह करै सो थोरी।।
कब छींके चढ़ि माखन खायो, कब दधि मटु की फोरी।
अँगुरिन करि कबहूँ नहिं चाखतु, घर ही भरी कमोरी।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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प्रेम योग -वियोगी हरि
क्रमांक विषय पृष्ठ संख्या
पहला खण्ड
1. प्रेम 1
2. मोह और प्रेम 15
3. एकांकी प्रेम 25
4. प्रेमी 29
5. प्रेम का अधिकारी 41
6. लौकिक से पारलौकिक प्रेम 45
7. प्रेम में तन्मयता 51
8. प्रेम में अधीरता 56
9. प्रेम में अनन्यता 63
10. प्रेमियों का मत मज़हब 72
11. प्रेमियों की अभिलाषाएँ 82
12. प्रेम व्याधि 95
13. प्रेम व्याधि 106
14. प्रेम प्याला 114
15. प्रेम पंथ 120
16. प्रेम मैत्री 130
17. प्रेम निर्वाह 141
18. प्रेम और विरह 146
19. प्रेमाश्रु 166
20. प्रेमी का हृदय 177
21. प्रेमी का मन 181
22. प्रेमियों का सत्संग 186
23. कुछ आदर्श प्रेमी 190
दूसरा खण्ड
1. विश्व प्रेम 204
2. दास्य 213
3. दास्य और सूरदास 223
4. दास्य और तुलसी दास 232
5. वात्सल्य 243
6. वात्सल्य और सूरदास 253
7. वात्सल्य और तुलसीदास 270
8. सख्य 281
9. शान्त भाव 291
10. मधुर रति 299
11. अव्यक्त प्रेम 310
12. मातृ भक्ति 317
13. प्रकृति में ईश्वर प्रेम 322
14. दीनों पर प्रेम 328
15. स्वदेश प्रेम 333
16. प्रेम महिमा 342
अंतिम पृष्ठ 348

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