प्रेम योग -वियोगी हरि
वात्सल्य और सूरदाससाँ भई, घर आवहु प्यारे! हलधर! तुम्हारा भाई कैसा ढीठ होता जाता है। किसी की सुनता तक नहीं। कितना ही रोको, मानता ही नहीं। अब तुम्हीं बुलाओ। तुम्हारे ही बुलाने से आयेगा। मैं भी देखूँ, तुम दोनों कैसे खेलते हो। मेरे राजा बेटा, आओ, दोनों भाई मेरी आँखों के ही सामने कुछ देर यहीं खेलो। क्यों, आँखमिचौनी खेलोगे? अच्छी बात है, वही खेलो- बोलि लेहु हलधर मैयाकों। सखी! आज अपने यहाँ नन्द नन्दन माखन चोरी करने आये हैं। हम सबका आज अहोभाग्य! देखो, कैसी चतुराई से आप माखन ले लेकर खा रहे हैं। श्रीदामा के कंधे पर चढ़कर दही की मटकी भी आपने धीरे से सींके पर से उतार ली है। श्यामसुंदर की यह छबि देखते ही बनती है, सखी! धीरे धीरे बात करो। कहीं गोपालाल सुन लें और पकड़ जाने के डर से भाग जायँ। अरी! ऐसे हृदय हारी चोरको कहीं घर से भगाना होता है! हे भगवन्! नित्य ही यह प्यारा चोर हमारे घर माखन चुराने आया करे, और इस नवनीत प्रिय की यह अनुपम शोभा निहार निहारकर हम अपनी आँखें सिराया करें- |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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