प्रेम योग -वियोगी हरि
वात्सल्यहम सब, वास्तव में, उस देश के भूले भटके पथिक हैं। पर मान कुछ और ही बैठे हैं। देखा जाय तो हम सभी किसी स्वर्गीय आँगन में खेलने वाले बालक हैं। हम अपने ही हाथों में अपनी वात्सल्य पात्रता खो बैठे हैं। दयाबाई की इस साखी का आज हम अर्थ नहीं लगा सकते- लाख चूक सुतसे परै, सो कछु तजि नहिं देह। जब हम खुद ही किसी के आज वात्सल्य भाजन नहीं है, तब हमारा भी कोई स्नेह पा6 क्यों होने चला? इसी से हमलोगों का जीवन आज स्नेह शून्य एवं शुष्क हो गया है। आनन्द का तो कहीं लेश भी नहीं है। जब तक हमारे हृदय में वात्सल्य प्रेम का संचार नहीं हुआ अथवा हम किसी के वात्सल्यपात्र नहीं हो गये, तब तक स्वर्ग का अमर राज्य हमें प्राप्त नहीं हो सकता। महात्मा ईसा की तो यह दृढ़ धारणा थी कि बालक ही उस परमपिता का एकमात्र उत्तराधिकारी है, बालक ही उस राज राजेश्वर का एकमात्र युवराज है। भगवद्विभूति क्राइस्ट का कथन है- अर्थात्, मैं तुमसे सच कहता हूँ कि जब तक तुमने अपने आप को छोटे छोटे बच्चों ममें परिणत नहीं कर लिया, स्वयं तुम बालक नहीं हो गये, तब तक स्वर्ग के राज्य में प्रवेश न कर सकोगे। एक प्रसंग पर फिर कहते हैं- बालकों को मेरे पास आने दो, उन्हें मना न करो। क्योंकि स्वर्ग का राज्य ऐसों का ही है। इसलिए, भाई! या तो हमें स्वयं ही परमपिता परमात्मा की ‘प्रेममयी गोद में बैठकर उसका अनन्त वात्सल्य रस लुटने को उद्यत हो जाना चाहिए, अथवा उसे ही अपना वात्सल्य पात्र बना लेना चाहिए। प्रेमानन्द प्राप्ति के यही दो राजमार्ग हैं।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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