प्रेम योग -वियोगी हरि पृ. 251

प्रेम योग -वियोगी हरि

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वात्सल्य

हम सब, वास्तव में, उस देश के भूले भटके पथिक हैं। पर मान कुछ और ही बैठे हैं। देखा जाय तो हम सभी किसी स्वर्गीय आँगन में खेलने वाले बालक हैं। हम अपने ही हाथों में अपनी वात्सल्य पात्रता खो बैठे हैं। दयाबाई की इस साखी का आज हम अर्थ नहीं लगा सकते-

लाख चूक सुतसे परै, सो कछु तजि नहिं देह।
पोषि चुचुकि लै गोद में, दिन दिन दूनों नेह।।

जब हम खुद ही किसी के आज वात्सल्य भाजन नहीं है, तब हमारा भी कोई स्नेह पा6 क्यों होने चला? इसी से हमलोगों का जीवन आज स्नेह शून्य एवं शुष्क हो गया है। आनन्द का तो कहीं लेश भी नहीं है। जब तक हमारे हृदय में वात्सल्य प्रेम का संचार नहीं हुआ अथवा हम किसी के वात्सल्यपात्र नहीं हो गये, तब तक स्वर्ग का अमर राज्य हमें प्राप्त नहीं हो सकता। महात्मा ईसा की तो यह दृढ़ धारणा थी कि बालक ही उस परमपिता का एकमात्र उत्तराधिकारी है, बालक ही उस राज राजेश्वर का एकमात्र युवराज है। भगवद्विभूति क्राइस्ट का कथन है-

Verily I say unto you, except ye be converted and become as little children, ye shall not enter into the kingdom of Heaven.

अर्थात्, मैं तुमसे सच कहता हूँ कि जब तक तुमने अपने आप को छोटे छोटे बच्चों ममें परिणत नहीं कर लिया, स्वयं तुम बालक नहीं हो गये, तब तक स्वर्ग के राज्य में प्रवेश न कर सकोगे। एक प्रसंग पर फिर कहते हैं-

Suffer little children, and forbid them not to come unto me: for of such is the kingdom of Heaven.

बालकों को मेरे पास आने दो, उन्हें मना न करो। क्योंकि स्वर्ग का राज्य ऐसों का ही है।

इसलिए, भाई! या तो हमें स्वयं ही परमपिता परमात्मा की ‘प्रेममयी गोद में बैठकर उसका अनन्त वात्सल्य रस लुटने को उद्यत हो जाना चाहिए, अथवा उसे ही अपना वात्सल्य पात्र बना लेना चाहिए। प्रेमानन्द प्राप्ति के यही दो राजमार्ग हैं।’

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

प्रेम योग -वियोगी हरि
क्रमांक विषय पृष्ठ संख्या
पहला खण्ड
1. प्रेम 1
2. मोह और प्रेम 15
3. एकांकी प्रेम 25
4. प्रेमी 29
5. प्रेम का अधिकारी 41
6. लौकिक से पारलौकिक प्रेम 45
7. प्रेम में तन्मयता 51
8. प्रेम में अधीरता 56
9. प्रेम में अनन्यता 63
10. प्रेमियों का मत मज़हब 72
11. प्रेमियों की अभिलाषाएँ 82
12. प्रेम व्याधि 95
13. प्रेम व्याधि 106
14. प्रेम प्याला 114
15. प्रेम पंथ 120
16. प्रेम मैत्री 130
17. प्रेम निर्वाह 141
18. प्रेम और विरह 146
19. प्रेमाश्रु 166
20. प्रेमी का हृदय 177
21. प्रेमी का मन 181
22. प्रेमियों का सत्संग 186
23. कुछ आदर्श प्रेमी 190
दूसरा खण्ड
1. विश्व प्रेम 204
2. दास्य 213
3. दास्य और सूरदास 223
4. दास्य और तुलसी दास 232
5. वात्सल्य 243
6. वात्सल्य और सूरदास 253
7. वात्सल्य और तुलसीदास 270
8. सख्य 281
9. शान्त भाव 291
10. मधुर रति 299
11. अव्यक्त प्रेम 310
12. मातृ भक्ति 317
13. प्रकृति में ईश्वर प्रेम 322
14. दीनों पर प्रेम 328
15. स्वदेश प्रेम 333
16. प्रेम महिमा 342
अंतिम पृष्ठ 348

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