प्रेम योग -वियोगी हरि
दास्य और तुलसी दाससेव्य सेवक भाव ही, गोसाईंजी के मत से प्रेम का सर्वोत्कृष्ट रूप है। बिना इस भाव साधना के भव सागर से तर जाना कठिन ही नहीं, असंभव है- सेवक सेव्य भाव बिनु भव न तरिय उरगारि। उस जगन्नियन्ता स्वामी का सेवक हो जाना ही जीव का परम पुरुषार्थ है। पर लाख में किसी एक को मिलती है उस मालिक की गुलामी। हम दुनिया के कमीने गुलामों को कहाँ नसीब है वह ऊँची गुलामी। जरा देखो तो, अपना कैसा सुंदर परिचय दिया है इस रामगुलाम ने। कहता है- मेरे जाति पाँति, न चहौं काहू की जाति पाँति कैसी आजादी की गुलामी है यह राम गुलामी! स्वामी और सेवक में यहाँ अंतर ही क्या है? दोनों का एक ही कुल है, एक ही गोत्र है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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