प्रेम योग -वियोगी हरि पृ. 241

प्रेम योग -वियोगी हरि

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दास्य और तुलसी दास

सेव्य सेवक भाव ही, गोसाईंजी के मत से प्रेम का सर्वोत्कृष्ट रूप है। बिना इस भाव साधना के भव सागर से तर जाना कठिन ही नहीं, असंभव है-

सेवक सेव्य भाव बिनु भव न तरिय उरगारि।
भजहु राम पद पंकज, अस सिद्धांत बिचारि।।

उस जगन्नियन्ता स्वामी का सेवक हो जाना ही जीव का परम पुरुषार्थ है। पर लाख में किसी एक को मिलती है उस मालिक की गुलामी। हम दुनिया के कमीने गुलामों को कहाँ नसीब है वह ऊँची गुलामी। जरा देखो तो, अपना कैसा सुंदर परिचय दिया है इस रामगुलाम ने। कहता है-

मेरे जाति पाँति, न चहौं काहू की जाति पाँति
मेरे कोऊ काम को, न हौं काहू के काम को।
लोक परलोक रघुनाथ ही के हाथ सब,
भारी है भरोसो तुलसी के एक नाम को।।
अति ही अयाने उपखानो नहीं बूझैं लोग,
‘साह ही को गोत’ गोत होत है गुलाम को।
साधु कै असाधु, कै भलो कै पोच, सोच कहा,
का काहू के द्वार परौं, जो हौं सो हौं राम को।।

कैसी आजादी की गुलामी है यह राम गुलामी! स्वामी और सेवक में यहाँ अंतर ही क्या है? दोनों का एक ही कुल है, एक ही गोत्र है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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प्रेम योग -वियोगी हरि
क्रमांक विषय पृष्ठ संख्या
पहला खण्ड
1. प्रेम 1
2. मोह और प्रेम 15
3. एकांकी प्रेम 25
4. प्रेमी 29
5. प्रेम का अधिकारी 41
6. लौकिक से पारलौकिक प्रेम 45
7. प्रेम में तन्मयता 51
8. प्रेम में अधीरता 56
9. प्रेम में अनन्यता 63
10. प्रेमियों का मत मज़हब 72
11. प्रेमियों की अभिलाषाएँ 82
12. प्रेम व्याधि 95
13. प्रेम व्याधि 106
14. प्रेम प्याला 114
15. प्रेम पंथ 120
16. प्रेम मैत्री 130
17. प्रेम निर्वाह 141
18. प्रेम और विरह 146
19. प्रेमाश्रु 166
20. प्रेमी का हृदय 177
21. प्रेमी का मन 181
22. प्रेमियों का सत्संग 186
23. कुछ आदर्श प्रेमी 190
दूसरा खण्ड
1. विश्व प्रेम 204
2. दास्य 213
3. दास्य और सूरदास 223
4. दास्य और तुलसी दास 232
5. वात्सल्य 243
6. वात्सल्य और सूरदास 253
7. वात्सल्य और तुलसीदास 270
8. सख्य 281
9. शान्त भाव 291
10. मधुर रति 299
11. अव्यक्त प्रेम 310
12. मातृ भक्ति 317
13. प्रकृति में ईश्वर प्रेम 322
14. दीनों पर प्रेम 328
15. स्वदेश प्रेम 333
16. प्रेम महिमा 342
अंतिम पृष्ठ 348

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