प्रेम योग -वियोगी हरि
दास्य और तुलसी दासखीझिबे लायक करतब कोटि कोटि कटु सच मानो, नाथ, तुम्हारे त्याग देने पर मैं कहीं का न रहूँगा। मेरा भला तुम्हारे ही हाथ होगा। सो जैसे बने तैसे अंगीकार कर लो। अधिक क्या कहूँ, तुम तो सब जानते हो। तुमसे छिपा ही क्या है! जीवन की अवधि अब बहुत दूर नहीं है- अपनी यह ‘विनय पत्रिका’ तुम्हारे दरबार में भेजता हूँ। इतनी अर्ज और है कि- राज दरबारों में अकसर धाँधली हो जाया करती है। तुम्हारे दरबार में भी संभव है यह पत्रिका किसी ऐसे मंत्री यापेशकार के हाथ में पड़ जाय, जो तुम्हारी पेशी में इसे कुछ घटा बढ़ाकर पढ़ दे। इसलिए इसे ‘आप ही बाँचो।’ पिताजी, कृपा कर स्वयं ही इस दीन की पत्री पढ़ लेना। अपने सरल स्वभाव से इस पर ‘सही’ करके तब फि पंचों से पूछना। पंचों से या दरबारी मुसाहबों से बेखट के पूछ सकते हो, उनकी राय भी इस पर ले सकते हो। मुझे कोई आपत्ति नहीं। पर, ‘सही’ उनसे बिना पूछे ही कर देना। भले ही यह बात कानून के खिलाफ हो। इस पद में प्रयुक्त ‘बाप’ शब्द द्रष्टव्य है। गोसाईंजी पंचों से बिना पूछे ही ‘सही’ लिखवा लेना चाहता हैं और स्वयं पढ़ने को भी कहते हैं। सलिए यहाँ ‘प्रभु’, ‘महाराज’, ‘देव’ आदि ऐश्वर्यसूचक संबोधनों का प्रयोग नहीं किया गया है। ‘बाप’ के संबोधन से आप धरू तौर पर बात कर रहे हैं। बाप से किसी तरह का कोई संकोच तो होता नहीं। ‘सही’ करा लेने तक तो ‘पिता पुत्र, का संबंध है, और इसके आगे ‘राजा प्रजा’ अथवा ‘स्वामी सेवक’ का भाव आ जाता है। अर्जी पेश करने का कैसा बढ़िया ढंग है! क्या अब भी राजाधिराज श्रीरामचंद्र विनयी तुलसी की विनय पत्रिका पर ‘सही’ न करेंगे? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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