प्रेम योग -वियोगी हरि पृ. 240

प्रेम योग -वियोगी हरि

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दास्य और तुलसी दास

खीझिबे लायक करतब कोटि कोटि कटु
रीझिबे लायक तुलसी की निलजई।

सच मानो, नाथ, तुम्हारे त्याग देने पर मैं कहीं का न रहूँगा। मेरा भला तुम्हारे ही हाथ होगा। सो जैसे बने तैसे अंगीकार कर लो। अधिक क्या कहूँ, तुम तो सब जानते हो। तुमसे छिपा ही क्या है! जीवन की अवधि अब बहुत दूर नहीं है-

‘तुलिसदास’ अपनाइये, कीजै न ढील, अब जीवन अवधि अति नेरे।

अपनी यह ‘विनय पत्रिका’ तुम्हारे दरबार में भेजता हूँ। इतनी अर्ज और है कि-

बिनय पत्रिका दीन की, बाप! आप ही बाँचो।

राज दरबारों में अकसर धाँधली हो जाया करती है। तुम्हारे दरबार में भी संभव है यह पत्रिका किसी ऐसे मंत्री यापेशकार के हाथ में पड़ जाय, जो तुम्हारी पेशी में इसे कुछ घटा बढ़ाकर पढ़ दे। इसलिए इसे ‘आप ही बाँचो।’ पिताजी, कृपा कर स्वयं ही इस दीन की पत्री पढ़ लेना।

हिये हेरि तुलसी लिखी, सो सुभाय सही करि, बहुरि पूछि अहि पाँचो।

अपने सरल स्वभाव से इस पर ‘सही’ करके तब फि पंचों से पूछना। पंचों से या दरबारी मुसाहबों से बेखट के पूछ सकते हो, उनकी राय भी इस पर ले सकते हो। मुझे कोई आपत्ति नहीं। पर, ‘सही’ उनसे बिना पूछे ही कर देना। भले ही यह बात कानून के खिलाफ हो।

इस पद में प्रयुक्त ‘बाप’ शब्द द्रष्टव्य है। गोसाईंजी पंचों से बिना पूछे ही ‘सही’ लिखवा लेना चाहता हैं और स्वयं पढ़ने को भी कहते हैं। सलिए यहाँ ‘प्रभु’, ‘महाराज’, ‘देव’ आदि ऐश्वर्यसूचक संबोधनों का प्रयोग नहीं किया गया है। ‘बाप’ के संबोधन से आप धरू तौर पर बात कर रहे हैं। बाप से किसी तरह का कोई संकोच तो होता नहीं। ‘सही’ करा लेने तक तो ‘पिता पुत्र, का संबंध है, और इसके आगे ‘राजा प्रजा’ अथवा ‘स्वामी सेवक’ का भाव आ जाता है। अर्जी पेश करने का कैसा बढ़िया ढंग है! क्या अब भी राजाधिराज श्रीरामचंद्र विनयी तुलसी की विनय पत्रिका पर ‘सही’ न करेंगे?

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

प्रेम योग -वियोगी हरि
क्रमांक विषय पृष्ठ संख्या
पहला खण्ड
1. प्रेम 1
2. मोह और प्रेम 15
3. एकांकी प्रेम 25
4. प्रेमी 29
5. प्रेम का अधिकारी 41
6. लौकिक से पारलौकिक प्रेम 45
7. प्रेम में तन्मयता 51
8. प्रेम में अधीरता 56
9. प्रेम में अनन्यता 63
10. प्रेमियों का मत मज़हब 72
11. प्रेमियों की अभिलाषाएँ 82
12. प्रेम व्याधि 95
13. प्रेम व्याधि 106
14. प्रेम प्याला 114
15. प्रेम पंथ 120
16. प्रेम मैत्री 130
17. प्रेम निर्वाह 141
18. प्रेम और विरह 146
19. प्रेमाश्रु 166
20. प्रेमी का हृदय 177
21. प्रेमी का मन 181
22. प्रेमियों का सत्संग 186
23. कुछ आदर्श प्रेमी 190
दूसरा खण्ड
1. विश्व प्रेम 204
2. दास्य 213
3. दास्य और सूरदास 223
4. दास्य और तुलसी दास 232
5. वात्सल्य 243
6. वात्सल्य और सूरदास 253
7. वात्सल्य और तुलसीदास 270
8. सख्य 281
9. शान्त भाव 291
10. मधुर रति 299
11. अव्यक्त प्रेम 310
12. मातृ भक्ति 317
13. प्रकृति में ईश्वर प्रेम 322
14. दीनों पर प्रेम 328
15. स्वदेश प्रेम 333
16. प्रेम महिमा 342
अंतिम पृष्ठ 348

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