प्रेम योग -वियोगी हरि पृ. 239

प्रेम योग -वियोगी हरि

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दास्य और तुलसी दास

तुम अपनायो तब जानिहौं, जब मन फिरि परिहै।
जेहि सुभाउ विषयनि लग्यौ, तेहि सहज नाथ सों नेह छाड़ि छल करिहै।।
सुत की प्रीति, प्रतीति मीत की, नृप ज्यों डर डरिहै।
अपनो सो स्वारथ स्वामी सों चहुँ बिध चातक ज्यों एक टेक तें नहिं टरिहैं।।
हरषिहै न अति आदरे, निदरे न जरि मरिहै।
हानि लाभ दुख सुख सबै समचित, हित अनहित, कलि कुचाल परिहरिहै।।
प्रभु गुन सुनि मन हरषिहै, नीर नैननि ढरिहै।
तुलसिदास भयो राम को, बिस्वास प्रेम लखि आनँद उमगि उर भरिहैं।।

सो, इस दशा का तो अभी यहाँ शताँश भी प्राप्त नहीं हुआ। अभी मेरा मन विषयों की ओर से कहाँ फिरा है। अभी तो मैं कामदास ही हूँ, रामदास नहीं। यह मन जिस सहजभाव से विषयों में आसक्त हो रहा है, उसी भाव से, छल कपट छोड़कर, जब यह तुमसे प्रेम करने लगेगा, तब जानूँगा कि मैं अब अंगीकृत हो गया। जिसे तुमने अपना लिया, वह तुम्हें चातक की चाह से चाहेगा। न वह सम्मानलाभ से प्रसन्न ही होगा और न तिरस्कृत होने पर डाह से जल ही मरेगा। हानि लाभ, सुख दुख आदि समस्त द्वंद्वों को वह एक सा समझेगा। अभी मेरा विषयी मन न तो तुम्हारा गुण गान सुनकर प्रफुल्लित ही होता है और न इन अभागिनी आँखों से प्रेमाश्रु धारा ही बहती है। फिर मैं कैसे मान लूँ कि तुमने अपने अंगीकृत जनों की सूची में तुलसी का भी नाम लिख लिया है। मुझे भूल भुलैया में न छोड़ो, मेरे हृदय सर्वस्व! अशरण शरण! मुझे अंगीकृत करके ही तुम अपने विरद की लाज रख सकोगे। तुम्हें रिझाने लायक और कोई गुण तो मेरे पास है नहीं; हाँ, एक निर्लज्जता निस्संदेह है, आज उसी पर रीझ जाओ। तुम्हारी रीझ अनोखी तो है ही-

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

प्रेम योग -वियोगी हरि
क्रमांक विषय पृष्ठ संख्या
पहला खण्ड
1. प्रेम 1
2. मोह और प्रेम 15
3. एकांकी प्रेम 25
4. प्रेमी 29
5. प्रेम का अधिकारी 41
6. लौकिक से पारलौकिक प्रेम 45
7. प्रेम में तन्मयता 51
8. प्रेम में अधीरता 56
9. प्रेम में अनन्यता 63
10. प्रेमियों का मत मज़हब 72
11. प्रेमियों की अभिलाषाएँ 82
12. प्रेम व्याधि 95
13. प्रेम व्याधि 106
14. प्रेम प्याला 114
15. प्रेम पंथ 120
16. प्रेम मैत्री 130
17. प्रेम निर्वाह 141
18. प्रेम और विरह 146
19. प्रेमाश्रु 166
20. प्रेमी का हृदय 177
21. प्रेमी का मन 181
22. प्रेमियों का सत्संग 186
23. कुछ आदर्श प्रेमी 190
दूसरा खण्ड
1. विश्व प्रेम 204
2. दास्य 213
3. दास्य और सूरदास 223
4. दास्य और तुलसी दास 232
5. वात्सल्य 243
6. वात्सल्य और सूरदास 253
7. वात्सल्य और तुलसीदास 270
8. सख्य 281
9. शान्त भाव 291
10. मधुर रति 299
11. अव्यक्त प्रेम 310
12. मातृ भक्ति 317
13. प्रकृति में ईश्वर प्रेम 322
14. दीनों पर प्रेम 328
15. स्वदेश प्रेम 333
16. प्रेम महिमा 342
अंतिम पृष्ठ 348

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