प्रेम योग -वियोगी हरि
दास्य और तुलसी दासक्या अच्छा कहा है- ऐसा कौन स्वातंत्र्य प्रिय होगा, जो यह दासत्व स्वीकार न करेगा। किस अभागे के हृदयतल में यह अभिलाषा न उठती होगी कि- जेहि जेहि जोनि करम बस भ्रमहीं। तहँ तहँ ईसु देउ यह हमहीं।। सेव्य सेवक भाव हँसी खेल नहीं है। यह महाभाव योग साधन से भी अधिक अगम्य है। इस नाते का एकरस निभा ले जाना कितना कठिन है, कितना कष्टकर है। अतः यह दास्य रति केवल हरि कृपा साध्य है। गोसाईं जी की दृष्टि में अंगीकृत अनन्य दास की कितनी ऊँची महिमा है, इसे नीचे के पद्य में देखिये- सो सुकृति, सुचिमंत, सुसंत, सुजान, सुसील, सिरोमनि स्वै। भक्त की यह महती महिमा सुनकर कौन ऐसा अभागा होगा, जो श्रीरघुनाथजी का अंगीकृत दास होने के लिए लालायित न होता होगा? दास्य रति का अनिर्वचनीय आनन्द लूटने के अर्थ कौन मूढ़, गोसाईं तुलसीदास के स्वर में अपना स्वर मिलाकर, भक्तिपूर्वक यह पुनीत प्रार्थना न करना होगा? मो सम दीन, न दीन हित, तुम समान रघुबीर। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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