प्रेम योग -वियोगी हरि पृ. 242

प्रेम योग -वियोगी हरि

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दास्य और तुलसी दास

क्या अच्छा कहा है-

साह ही को गोत, गोत होत है गुलाम को।

ऐसा कौन स्वातंत्र्य प्रिय होगा, जो यह दासत्व स्वीकार न करेगा। किस अभागे के हृदयतल में यह अभिलाषा न उठती होगी कि-

जेहि जेहि जोनि करम बस भ्रमहीं। तहँ तहँ ईसु देउ यह हमहीं।।
सेवक हम, स्वामी सिय नाहू। होउ नात यह ओर निबाहू।।

सेव्य सेवक भाव हँसी खेल नहीं है। यह महाभाव योग साधन से भी अधिक अगम्य है। इस नाते का एकरस निभा ले जाना कितना कठिन है, कितना कष्टकर है। अतः यह दास्य रति केवल हरि कृपा साध्य है।

गोसाईं जी की दृष्टि में अंगीकृत अनन्य दास की कितनी ऊँची महिमा है, इसे नीचे के पद्य में देखिये-

सो सुकृति, सुचिमंत, सुसंत, सुजान, सुसील, सिरोमनि स्वै।
सुरतीरथ तासु मनावतु आवत, पावन होत हैं ता तन लतै।।
गुन गेह, सनेह को भाजन सो, सबही सों उठाइ कहौं भुज द्वै।
सतिभाय सदा छल छाड़ि सबै, तुलसी जो रहै रघुबीर को ह्वै।।

भक्त की यह महती महिमा सुनकर कौन ऐसा अभागा होगा, जो श्रीरघुनाथजी का अंगीकृत दास होने के लिए लालायित न होता होगा? दास्य रति का अनिर्वचनीय आनन्द लूटने के अर्थ कौन मूढ़, गोसाईं तुलसीदास के स्वर में अपना स्वर मिलाकर, भक्तिपूर्वक यह पुनीत प्रार्थना न करना होगा?

मो सम दीन, न दीन हित, तुम समान रघुबीर।
अस बिचारि, रघुवंस- मनि, हरहु बिषम भव भीर।
कामिहि नारि पियारि जिमि लोभिहि प्रिय जिमि दाम।
तिमि रघुनाथ निरन्तर, प्रिय लागहु मोहि राम।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

प्रेम योग -वियोगी हरि
क्रमांक विषय पृष्ठ संख्या
पहला खण्ड
1. प्रेम 1
2. मोह और प्रेम 15
3. एकांकी प्रेम 25
4. प्रेमी 29
5. प्रेम का अधिकारी 41
6. लौकिक से पारलौकिक प्रेम 45
7. प्रेम में तन्मयता 51
8. प्रेम में अधीरता 56
9. प्रेम में अनन्यता 63
10. प्रेमियों का मत मज़हब 72
11. प्रेमियों की अभिलाषाएँ 82
12. प्रेम व्याधि 95
13. प्रेम व्याधि 106
14. प्रेम प्याला 114
15. प्रेम पंथ 120
16. प्रेम मैत्री 130
17. प्रेम निर्वाह 141
18. प्रेम और विरह 146
19. प्रेमाश्रु 166
20. प्रेमी का हृदय 177
21. प्रेमी का मन 181
22. प्रेमियों का सत्संग 186
23. कुछ आदर्श प्रेमी 190
दूसरा खण्ड
1. विश्व प्रेम 204
2. दास्य 213
3. दास्य और सूरदास 223
4. दास्य और तुलसी दास 232
5. वात्सल्य 243
6. वात्सल्य और सूरदास 253
7. वात्सल्य और तुलसीदास 270
8. सख्य 281
9. शान्त भाव 291
10. मधुर रति 299
11. अव्यक्त प्रेम 310
12. मातृ भक्ति 317
13. प्रकृति में ईश्वर प्रेम 322
14. दीनों पर प्रेम 328
15. स्वदेश प्रेम 333
16. प्रेम महिमा 342
अंतिम पृष्ठ 348

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