प्रेम योग -वियोगी हरि
मोह और प्रेमऐसा ही अवसर एक दिन राम चरणानुगामी लक्ष्मण के सामने आया था; पर उनकी माता साध्वी सुमित्रा ने जिन प्रेमपूर्ण शब्दों से अपने हृदयाधार वत्स को वन जाने की आज्ञा दे दी, वे आज भी भावुकों के हृदय पर ज्यों के त्यों अंकित बने हुए हैं। अपने प्राणप्रिय लालसे आप कहती हैं- अवध तहाँ जहँ राम निवासू। तहँइँ दिवसु जहँ भानु प्रकासू।। क्या बादल की माता की अपेक्षा लक्ष्मण की माता कुछ कम स्नेहमयी थीं? वात्सल्य रस धारा का वेग सुमित्रा के हृदय में क्या अपेक्षाकृत कुछ मन्द था? नहीं, कदापि नहीं। ऐसी कौन पाषाण हृदयता माता होगी, जो अपने लाल को अपनी आँखों की ओट करना चाहेगी? बात यह है कि सुमित्रा अपने मोहमूलक ममत्व को कर्तव्यपूर्ण प्रेम की बलि वेदी पर चढ़ा चुकी थीं। इसी से वह अपने स्नेह भाजन से, ‘बैठि मानु सुख राज’ न कहकर यह कहती हैं- एक अभी कल की बात है। उस दिन का वह स्वर्गीय दृश्य था। जेल में बंदी पुत्र से माता की यह अंतिम भेंट थी। उसे देखकर जेल के कर्मचारी भी दंग रह गये थ। पुत्र माँ के पैरों पर सिर रखकर रो रहा था। पर जननी ने अपने हृदय को पत्थर से दबाकर जो उत्तर दिय वह भुलाया नहीं जा सकता। बोलीं- मैं तो समझती थी, तुमने अपने पर विजय पायी है; किन्तु यहाँ तो तुम्हारी कुछ और ही दशा है। जीवनपर्यन्त देश के लिए आँसू बहाकर अब अंतिम समय तुम मेरे लिए रोने बैठे हो! इस कायरता से अब क्या होगा? तुम्हें वीर की भांति हँसते हुए प्राण देते देखकर मैं अपने आपको धन्य समझूँगी। मुझे गर्व है कि इस गये बीते जमाने में मेरा पुत्र देश की वेदी पर प्राण दे रहा है। मेरा काम तो तुम्हें पालकर केवल बड़ा करना था, इसके बाद तुम देश की चीज थे और उसी के काम आ गये। मुझे इसमें तनिक भी दुख नहीं है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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