प्रेम योग -वियोगी हरि पृ. 23

प्रेम योग -वियोगी हरि

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मोह और प्रेम

ऐसा ही अवसर एक दिन राम चरणानुगामी लक्ष्मण के सामने आया था; पर उनकी माता साध्वी सुमित्रा ने जिन प्रेमपूर्ण शब्दों से अपने हृदयाधार वत्स को वन जाने की आज्ञा दे दी, वे आज भी भावुकों के हृदय पर ज्यों के त्यों अंकित बने हुए हैं। अपने प्राणप्रिय लालसे आप कहती हैं-

अवध तहाँ जहँ राम निवासू। तहँइँ दिवसु जहँ भानु प्रकासू।।
जो पै सीय रामु बन जाहीं। अवध तुम्हार काज कछु नाहीं।।
तुम्ह कहँ बन सब भाँति सुपासू। सँग पितु मातु राम सिय जासू।। -तुलसीदास

क्या बादल की माता की अपेक्षा लक्ष्मण की माता कुछ कम स्नेहमयी थीं? वात्सल्य रस धारा का वेग सुमित्रा के हृदय में क्या अपेक्षाकृत कुछ मन्द था? नहीं, कदापि नहीं। ऐसी कौन पाषाण हृदयता माता होगी, जो अपने लाल को अपनी आँखों की ओट करना चाहेगी? बात यह है कि सुमित्रा अपने मोहमूलक ममत्व को कर्तव्यपूर्ण प्रेम की बलि वेदी पर चढ़ा चुकी थीं। इसी से वह अपने स्नेह भाजन से, ‘बैठि मानु सुख राज’ न कहकर यह कहती हैं-

तुम्ह कहं बन सब भांति सुपासू। संग पितु मातु रामसिय जासू।।

एक अभी कल की बात है। उस दिन का वह स्वर्गीय दृश्य था। जेल में बंदी पुत्र से माता की यह अंतिम भेंट थी। उसे देखकर जेल के कर्मचारी भी दंग रह गये थ। पुत्र माँ के पैरों पर सिर रखकर रो रहा था। पर जननी ने अपने हृदय को पत्थर से दबाकर जो उत्तर दिय वह भुलाया नहीं जा सकता। बोलीं- मैं तो समझती थी, तुमने अपने पर विजय पायी है; किन्तु यहाँ तो तुम्हारी कुछ और ही दशा है। जीवनपर्यन्त देश के लिए आँसू बहाकर अब अंतिम समय तुम मेरे लिए रोने बैठे हो! इस कायरता से अब क्या होगा? तुम्हें वीर की भांति हँसते हुए प्राण देते देखकर मैं अपने आपको धन्य समझूँगी। मुझे गर्व है कि इस गये बीते जमाने में मेरा पुत्र देश की वेदी पर प्राण दे रहा है। मेरा काम तो तुम्हें पालकर केवल बड़ा करना था, इसके बाद तुम देश की चीज थे और उसी के काम आ गये। मुझे इसमें तनिक भी दुख नहीं है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

प्रेम योग -वियोगी हरि
क्रमांक विषय पृष्ठ संख्या
पहला खण्ड
1. प्रेम 1
2. मोह और प्रेम 15
3. एकांकी प्रेम 25
4. प्रेमी 29
5. प्रेम का अधिकारी 41
6. लौकिक से पारलौकिक प्रेम 45
7. प्रेम में तन्मयता 51
8. प्रेम में अधीरता 56
9. प्रेम में अनन्यता 63
10. प्रेमियों का मत मज़हब 72
11. प्रेमियों की अभिलाषाएँ 82
12. प्रेम व्याधि 95
13. प्रेम व्याधि 106
14. प्रेम प्याला 114
15. प्रेम पंथ 120
16. प्रेम मैत्री 130
17. प्रेम निर्वाह 141
18. प्रेम और विरह 146
19. प्रेमाश्रु 166
20. प्रेमी का हृदय 177
21. प्रेमी का मन 181
22. प्रेमियों का सत्संग 186
23. कुछ आदर्श प्रेमी 190
दूसरा खण्ड
1. विश्व प्रेम 204
2. दास्य 213
3. दास्य और सूरदास 223
4. दास्य और तुलसी दास 232
5. वात्सल्य 243
6. वात्सल्य और सूरदास 253
7. वात्सल्य और तुलसीदास 270
8. सख्य 281
9. शान्त भाव 291
10. मधुर रति 299
11. अव्यक्त प्रेम 310
12. मातृ भक्ति 317
13. प्रकृति में ईश्वर प्रेम 322
14. दीनों पर प्रेम 328
15. स्वदेश प्रेम 333
16. प्रेम महिमा 342
अंतिम पृष्ठ 348

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