प्रेम योग -वियोगी हरि
मोह और प्रेमसारांश, मोह वासना प्रधान होता है और प्रेम त्याग प्रधान। मोह क्षणिक होता है और प्रेम चिरस्थायी। मोह पुराना पड़ जाता है, पर प्रेम नित्य नवीन ही बना रहता है। जिस प्रेम से हम ऊँचे नहीं उठ सकते वह प्रेम नहीं, उन्मादकारी मोह है। अपने प्रेम पात्र को केवल अपने ही सुख और हित का साधन बना बैठोगे तो प्रेम का आनन्द तुम कदापि न पा सकोगे। अपने प्रेम पात्र के द्वारा लोक हित होने दो। उसे अपने आँखों की ओट करते हुए तुम्हें कष्ट अवश्य होगा, तुम यह कभी न चाहोगे कि तुम्हारा वह अभिन्न हृदय प्रिय मित्र क्षणमात्र को भी तुमसे अलग हो जाय, पर तुम्हें पवित्र प्रेम की साधना करते हुए मोह का कठिन पाश काटना ही होगा। नीचे के प्रसंग मोह और प्रेम को अधिक स्पष्ट कर देंगे। रणांगण को जाते हुए चित्तौरवीर कुमार बादल की माता उससे कहती हैं- जबही आइ चढ़ै दल ठटा। दीखत जैसि गगन घन घटा।। माता के वात्सल्य भाव प्लुत हृदय को देखते हुए यद्यपि ऊपर की पंक्तियाँ एक प्रकार से मोह के अंतर्गत आती नहीं हैं तथापि मोह की एक अस्पष्ट छाया उन पर पड़ती अवश्य है। उस मोह ममता का कारण ही रणोद्यत बादल को माता की आज्ञा प्राप्त नहीं करा सकता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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