प्रेम योग -वियोगी हरि पृ. 21

प्रेम योग -वियोगी हरि

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मोह और प्रेम

प्रेम की झिलमिल है नगरी!
अखिल अण्ड ब्रह्माण्ड परे, सब लोकनतें अगरी।।
अतिसै चित्र विचित्र अलौकिक, सोभा चहुँ बगरी।
नहीं तहँ चंद न सूरज, तौहूँ जागति जगमगरी।।
रसकी भूमि, नीरहू रसकौ, रसमय है सिगरी।
भरय्यौ रहतु रस सदा एकरस, पिय रस की गगरी।।
कौन अक्ल का दुश्मन उसे मुर्दों का शहर कहेगा?

प्रेम सरोवर में विहार क्यों नहीं करते, प्यारे पथिको! क्यों व्यर्थ मोह के कीचड़ में लथपथ हो रहे हो? क्यों एक भिक्षुक की भाँति अपने प्रेमास्पद से निरंतर कुछ न कुछ माँगते रहते हो? प्रेमियो! तुम राजाधिराज की भाँति रहो, भिखारी की तरह नहीं। तुम तो देने में ही मस्त रहो, लेने के पीछे मत पड़ो। अपने प्रिय के हृदय पात्र में अपनी आत्मीयता का दान करते जाओ। तुम्हारे उदात्त आत्म दान से उसके सौंदर्य में वृद्धि होगी, उसकी अनुरक्ति पर प्रकाश पड़ेगा और उसके प्रेमपूर्ण मानसे में आनन्द लहरी लहरानी लगेगी।

पर मित्रो! तुम तो वासना को ही उपासना समझ बैठे हो! याद रखो यह नाशकारी मोह है, कल्याणकारी प्रेम नहीं। महामना हेनरी वान डाइकने क्या अच्छा लिखा है-

Love is not getting, but giving; not a wild dream of pleasure and a madness of desire- Oh, no love is not that. It is goodness and peace and pure living; love is that; and it is the best thing in the world and the thing that lives longest.

अर्थात्, प्रेम आदान नहीं, किन्तु प्रदान है। वह न तो भोग- विलास का सम्मोहक स्वप्न है और न वासनाओं का उन्माद। यह सब प्रेम नहीं हो सकता। भलाई, शान्ति और सदाचारिता को प्रेम कहते हैं। इन सद्गुणों में प्रेम ही निवास करता है। संसार में इस प्रकार का प्रेम ही सर्वश्रेष्ठ और चिरस्थायी वस्तु है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

प्रेम योग -वियोगी हरि
क्रमांक विषय पृष्ठ संख्या
पहला खण्ड
1. प्रेम 1
2. मोह और प्रेम 15
3. एकांकी प्रेम 25
4. प्रेमी 29
5. प्रेम का अधिकारी 41
6. लौकिक से पारलौकिक प्रेम 45
7. प्रेम में तन्मयता 51
8. प्रेम में अधीरता 56
9. प्रेम में अनन्यता 63
10. प्रेमियों का मत मज़हब 72
11. प्रेमियों की अभिलाषाएँ 82
12. प्रेम व्याधि 95
13. प्रेम व्याधि 106
14. प्रेम प्याला 114
15. प्रेम पंथ 120
16. प्रेम मैत्री 130
17. प्रेम निर्वाह 141
18. प्रेम और विरह 146
19. प्रेमाश्रु 166
20. प्रेमी का हृदय 177
21. प्रेमी का मन 181
22. प्रेमियों का सत्संग 186
23. कुछ आदर्श प्रेमी 190
दूसरा खण्ड
1. विश्व प्रेम 204
2. दास्य 213
3. दास्य और सूरदास 223
4. दास्य और तुलसी दास 232
5. वात्सल्य 243
6. वात्सल्य और सूरदास 253
7. वात्सल्य और तुलसीदास 270
8. सख्य 281
9. शान्त भाव 291
10. मधुर रति 299
11. अव्यक्त प्रेम 310
12. मातृ भक्ति 317
13. प्रकृति में ईश्वर प्रेम 322
14. दीनों पर प्रेम 328
15. स्वदेश प्रेम 333
16. प्रेम महिमा 342
अंतिम पृष्ठ 348

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