प्रेम योग -वियोगी हरि
मोह और प्रेमप्रेम की झिलमिल है नगरी! प्रेम सरोवर में विहार क्यों नहीं करते, प्यारे पथिको! क्यों व्यर्थ मोह के कीचड़ में लथपथ हो रहे हो? क्यों एक भिक्षुक की भाँति अपने प्रेमास्पद से निरंतर कुछ न कुछ माँगते रहते हो? प्रेमियो! तुम राजाधिराज की भाँति रहो, भिखारी की तरह नहीं। तुम तो देने में ही मस्त रहो, लेने के पीछे मत पड़ो। अपने प्रिय के हृदय पात्र में अपनी आत्मीयता का दान करते जाओ। तुम्हारे उदात्त आत्म दान से उसके सौंदर्य में वृद्धि होगी, उसकी अनुरक्ति पर प्रकाश पड़ेगा और उसके प्रेमपूर्ण मानसे में आनन्द लहरी लहरानी लगेगी। पर मित्रो! तुम तो वासना को ही उपासना समझ बैठे हो! याद रखो यह नाशकारी मोह है, कल्याणकारी प्रेम नहीं। महामना हेनरी वान डाइकने क्या अच्छा लिखा है- Love is not getting, but giving; not a wild dream of pleasure and a madness of desire- Oh, no love is not that. It is goodness and peace and pure living; love is that; and it is the best thing in the world and the thing that lives longest. अर्थात्, प्रेम आदान नहीं, किन्तु प्रदान है। वह न तो भोग- विलास का सम्मोहक स्वप्न है और न वासनाओं का उन्माद। यह सब प्रेम नहीं हो सकता। भलाई, शान्ति और सदाचारिता को प्रेम कहते हैं। इन सद्गुणों में प्रेम ही निवास करता है। संसार में इस प्रकार का प्रेम ही सर्वश्रेष्ठ और चिरस्थायी वस्तु है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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