प्रेम योग -वियोगी हरि
मोह और प्रेम‘आजु गवन तोर आवै, बैठि भानु सुख राज’ और इन वीरों द्वारों- में कितना भारी अंतर है। बात यह है कि वह मोह है और यह प्रेम है। मोह और प्रेम का एक दृश्य और देख लीजिए। कुमार सिद्धार्थ वासनात्मक मोह को लात मारकर प्रेम साम्राज्य में पदार्पण करते हुए अपनी प्राण प्रिया यशोधरा से कहते हैं- अंक बीच बसि कबहुँ कबहुँ, हे प्रिये! तिहारे, प्रिये! अब मुझे तुम्हारे प्रणय चुम्बन और प्रगाढ़ालिंगन का क्षुद्र मोह त्यागना ही होगा, कारण कि मेरे हृदय में अज्ञात प्राणि मात्र से प्रेम करने की जो प्रचण्ड अग्नि जल रही है और उसे यह चुम्बन और आलिंगन किसी प्रकार शान्त न कर सकेगा। प्रिये! आज मैं अपने अन्तस्तल में कुछ ऐसा सुन रहा हूँ। मरमत हैं भव चक्र बीच जड़ अन्ध जीव ये सारे, |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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