प्रेम योग -वियोगी हरि
दास्य और सूरदासदोषी, अपराधी, पात की, नारकीय मैं तभी तक हूँ, जब तक मुझे तुमने अपनी अभयप्रद शरण में नहीं ले लिया। यह तो मान चुका हूँ कि मुझसे अगणित अपराध हुए, हो रहे हैं और होंगे; क्योंकि यह तो मेरा स्वभाव है। पर तुम्हें ऐसा न चाहिए। नाथ! तुम्हें मेरे अपराधों को अपने वात्सल्य पूर्ण हृदय में स्थान न देना चाहिए! करुणा सागर! दास को इतना कठोर दण्ड क्यों दे रहे हो? माधवजू! जो जनतें बिगरै। बालक कितने ही अक्षम्य अपराध करे, माता पिता उसे त्याग नहीं देते। तनिक सोचने की बात है यदि वे ही उसे छोड़ दें, तो उस बेचारे का फिर पालन पोषण कौन करेगा? क्या मैं आज तुम्हारी गोद में बैठने का भी अधिकारी नहीं? करुणालय! यह निष्ठुरता तुम्हें शोभा नहीं देती। न जाने, तुम आज मेरे साथ कैसा कुछ व्यवहार कर रहे हो। तुम सा स्वामी ऐसा व्यवहार करेगा, यह मुझे आशा न थी। तुम्हें छोड़ यह अनाथ अब किसके द्वार पर जाय? किसका होकर रहे? प्रभो! सेवक की वेदना जानने वाले एक तुम्हीं हो। पर न जाने, आज तुम्हारी करुणा कहाँ चली गयी! मेरी बार तुम ऐसे निठुर, न जाने क्यों बन गये! क्या करूँ, कुछ समझ में ही नहीं आता। मुझे ही अपनाने में आज यह हिचकिचाहट हो रही है। कहीं अपना विरद तो नहीं भूल गये! यदि सचमुच भूल गये, तो फिर हो चुका! तब तो अब हमलोगों का खूब उद्धार होगा नाथ! |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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