प्रेम योग -वियोगी हरि
दास्य और सूरदासजो पै तुमहीं बिरद बिसारो। यह तो अब निश्चय हो गया है कि अपने निज पुरुषार्थ से मैं कुछ न कर सकूँगा। उस दिन उन पापियों की देखा देखी, बिना विचारे मैं भी अघ सागर में तैरने लगा। वे सब अच्छे तैराक थे, सो तैर तारकर पार लग गये। पर मुझे उन सबों ने बीच में ही, बिना किसी सहारे के बिल्कुल अकेला छोड़ दिया- मो देखत सब हँसत परस्पर तारी दै दै धीट। अब क्या करूं, नाथ! मेरा तो कोई भी कहीं आधार नहीं। तुम्हारे नाम का अवलम्बन होता, तो क्यों इस तरह पापपयोधि में डुबकियाँ खाता फिरता? लो, अब डूबा, बस अब डूबा- तुम कृपालु करुनामय केसव, अब हौं बूड़त माहँ। बचा लो नाथ, बचा लो। क्यों व्यर्थ मेरी ही बार इतनी देरी लगा रहे हो? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रमांक | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज