प्रेम योग -वियोगी हरि पृ. 219

प्रेम योग -वियोगी हरि

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दास्य

दीन दयालु कहाइकैं धाइकैं, दीनन सों क्यों सनेह बढ़ायो?
त्यों ‘हरिचन्दजू’ बेदन में करुनानिधि नाम कहौ क्यों गनायो?
ऐसी रुखाई न चाहिए तापै कृपा करिकैं जेहिकों अपनायो?
ऐसो ही जो पै स्वभाव रह्यौ तौ ‘गरीब निवाज’ क्यों नाम धरायो?

हे प्रभो! मेरी नीचता देखकर संकोच न करो। इस अपार भव सरिता से पार कर दो-

तारे तुम बहु पथिनकों यह नद धार अपार।
पार करौ यहि दीनकों, पावन खेवनहार।।
पावन खेवनहार तजौ जनि कूर कुबरनैं।
बरनैं नहीं सुजान, प्रेम लखि लेहिं सबुरनैं।
बरनैं दीनदयाल, नाव गुन हाथ तिहारे।
हारे को सब भाँति सु बनिहैं पार उतारे।।

मैं तुम्हारी सेवा पूजा करना क्या जानूँ, भगवन्! मैं एक दरजे का कामचोर तुम्हारी नौकरी कैसे बजा सकता हूँ! यदि पूछो, तो फिर तू जानता क्या है, तो जानता सिर्फ इतना हूँ कि मैं तुम्हारा एक नमक हराम नौकर हूँ। सुना है कि तुम मुझे बरखास्त कर रहे हो। गरीब पर वर, क्या यह सच है! कहीं ऐसा काम सचमुच कर न बैठना, मेरे मालिक! और चाहे जो सदा दे दो, पर अपने चरण न छुड़ाओ, मेरे स्वामी! तुम्हें छोड़ यहाँ मेरा और कौन है! मेरे जैसे तो तुम्हें सैकड़ों मिल जायेंगे-

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

प्रेम योग -वियोगी हरि
क्रमांक विषय पृष्ठ संख्या
पहला खण्ड
1. प्रेम 1
2. मोह और प्रेम 15
3. एकांकी प्रेम 25
4. प्रेमी 29
5. प्रेम का अधिकारी 41
6. लौकिक से पारलौकिक प्रेम 45
7. प्रेम में तन्मयता 51
8. प्रेम में अधीरता 56
9. प्रेम में अनन्यता 63
10. प्रेमियों का मत मज़हब 72
11. प्रेमियों की अभिलाषाएँ 82
12. प्रेम व्याधि 95
13. प्रेम व्याधि 106
14. प्रेम प्याला 114
15. प्रेम पंथ 120
16. प्रेम मैत्री 130
17. प्रेम निर्वाह 141
18. प्रेम और विरह 146
19. प्रेमाश्रु 166
20. प्रेमी का हृदय 177
21. प्रेमी का मन 181
22. प्रेमियों का सत्संग 186
23. कुछ आदर्श प्रेमी 190
दूसरा खण्ड
1. विश्व प्रेम 204
2. दास्य 213
3. दास्य और सूरदास 223
4. दास्य और तुलसी दास 232
5. वात्सल्य 243
6. वात्सल्य और सूरदास 253
7. वात्सल्य और तुलसीदास 270
8. सख्य 281
9. शान्त भाव 291
10. मधुर रति 299
11. अव्यक्त प्रेम 310
12. मातृ भक्ति 317
13. प्रकृति में ईश्वर प्रेम 322
14. दीनों पर प्रेम 328
15. स्वदेश प्रेम 333
16. प्रेम महिमा 342
अंतिम पृष्ठ 348

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