प्रेम योग -वियोगी हरि
दास्यभरोसो रीझन ही लखि भारी। बलिहारी! कैसी उलटी रीझ है तुम्हारी! कैसी ही हो, हम जैसे पापियों के तो बड़े काम की है इतना तो मुझे विश्वास है कि मैं तुम्हें एक न एक दिन रिझाकर ही रहूँगा। मैं पापियों की दौड़ में किसी से पीछे रहने वाला नहीं। सबसे दो कदम आगे ही देखोगे। पतित में कलंकी मैं, अपराधी मैं, हीन मैं, दीन मैं, बताओ, मैं क्या नहीं हूँ! किस रिझवार पापी से कम हूँ! आश्चर्य यही है कि तुम अब तक मुझ पर रीझे नहीं! इससे या तो मैं पतित नहीं, या तुम पतितपावन नहीं। या तो मैं गरीब नहीं, या तुम गरीब निवाज नहीं। हो सकता है कि तुम पतति पावन और गरीब निवाज न हो, परयह कभी संभव नहीं कि मैं पतित और गरीब न होऊँ। मुझे अपने ऊपर अविश्वास या संदेह हो ही नहीं सकता। तब तो नाथ! यही प्रतीत होता है कि तुम्हारा विरद ही झूठा है। न तुम अब वैसे पतित पावन ही रहे और न वह गरीब निवाज हो। तो फिर क्यों ऐसे झूठे और निस्सार नाम रखा लिये हैं। क्या कहें, क्या न कहें! |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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