प्रेम योग -वियोगी हरि पृ. 218

प्रेम योग -वियोगी हरि

Prev.png

दास्य

भरोसो रीझन ही लखि भारी।
हमहूँकों विश्वास होत है मोहन पतित उधारी।।
जो ऐसो स्वभाव नहिं होतो, क्यों अहीर कुल मायो!
तजिकैं कौस्तुम सो मनि गर क्यों गुंजा हार धरायो!
क्रीट मुकुट सिर छाँड़ि पखौआ मोरन कौ क्यों धारय्यो!
फेंट कसी टेंटिनपै, मेव कौ क्यों स्वाद बिसारय्यो!
ऐसी उलटी रीझ देखिकैं उपजति है जिय आस।
जग – निन्दित हरिचन्दहुकों अपनावहिंगे करि दास।।

बलिहारी! कैसी उलटी रीझ है तुम्हारी! कैसी ही हो, हम जैसे पापियों के तो बड़े काम की है इतना तो मुझे विश्वास है कि मैं तुम्हें एक न एक दिन रिझाकर ही रहूँगा। मैं पापियों की दौड़ में किसी से पीछे रहने वाला नहीं। सबसे दो कदम आगे ही देखोगे। पतित में कलंकी मैं, अपराधी मैं, हीन मैं, दीन मैं, बताओ, मैं क्या नहीं हूँ! किस रिझवार पापी से कम हूँ! आश्चर्य यही है कि तुम अब तक मुझ पर रीझे नहीं! इससे या तो मैं पतित नहीं, या तुम पतितपावन नहीं। या तो मैं गरीब नहीं, या तुम गरीब निवाज नहीं। हो सकता है कि तुम पतति पावन और गरीब निवाज न हो, परयह कभी संभव नहीं कि मैं पतित और गरीब न होऊँ। मुझे अपने ऊपर अविश्वास या संदेह हो ही नहीं सकता। तब तो नाथ! यही प्रतीत होता है कि तुम्हारा विरद ही झूठा है। न तुम अब वैसे पतित पावन ही रहे और न वह गरीब निवाज हो। तो फिर क्यों ऐसे झूठे और निस्सार नाम रखा लिये हैं। क्या कहें, क्या न कहें!

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

प्रेम योग -वियोगी हरि
क्रमांक विषय पृष्ठ संख्या
पहला खण्ड
1. प्रेम 1
2. मोह और प्रेम 15
3. एकांकी प्रेम 25
4. प्रेमी 29
5. प्रेम का अधिकारी 41
6. लौकिक से पारलौकिक प्रेम 45
7. प्रेम में तन्मयता 51
8. प्रेम में अधीरता 56
9. प्रेम में अनन्यता 63
10. प्रेमियों का मत मज़हब 72
11. प्रेमियों की अभिलाषाएँ 82
12. प्रेम व्याधि 95
13. प्रेम व्याधि 106
14. प्रेम प्याला 114
15. प्रेम पंथ 120
16. प्रेम मैत्री 130
17. प्रेम निर्वाह 141
18. प्रेम और विरह 146
19. प्रेमाश्रु 166
20. प्रेमी का हृदय 177
21. प्रेमी का मन 181
22. प्रेमियों का सत्संग 186
23. कुछ आदर्श प्रेमी 190
दूसरा खण्ड
1. विश्व प्रेम 204
2. दास्य 213
3. दास्य और सूरदास 223
4. दास्य और तुलसी दास 232
5. वात्सल्य 243
6. वात्सल्य और सूरदास 253
7. वात्सल्य और तुलसीदास 270
8. सख्य 281
9. शान्त भाव 291
10. मधुर रति 299
11. अव्यक्त प्रेम 310
12. मातृ भक्ति 317
13. प्रकृति में ईश्वर प्रेम 322
14. दीनों पर प्रेम 328
15. स्वदेश प्रेम 333
16. प्रेम महिमा 342
अंतिम पृष्ठ 348

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः