प्रेम योग -वियोगी हरि
विश्व प्रेमकृष्ण सखा को देखकर वे कहते हैं- तुम्हरो दरसन पाय आपनो जनम सफल करि जान्यौ। वास्तव में व्रजांगनाएँ प्रेम रस की अद्वितीय अधिकारिणी थीं। ‘गोपी प्रेम की धुजा’- इस उक्ति में तनिक भी अत्युक्ति नहीं है। त्रिलोक वन्दनीया गोपिकाओं ने ही व्रज धाम को विश्व प्रेम का एक सुरम्य स्थल बनाया है। तुम्हारी अंतरात्मा में भाई! अगणित झरोखे होने चाहिए। इसलिए कि लीलामयी प्रकृति अपनी प्रेम किरणों का सौंदर्य प्रकाश उन अनन्त झरोकों में होकर तुम्हारे अन्तस्तल पर बिखेरती रहे। पर, ऐसा तुम एक बारगी न कर सकोगे। विश्व प्रेम तो प्रेम की अति सीमा है। पहले तो किसी एक ही झरोखे से प्रेम किरणों का प्रवेश कराना होगा, किसी एक ही के साथ अनन्य भाव से लौ लगानी होगी। फिर उस प्रेमपात्र की प्रीति का क्रम क्रम से प्रसार और प्रस्तार करना होगा। उसकी प्रेम वृद्धि के लिए ही तुम्हें अपने भाव विश्वव्यापी बनाने होंगे, या उस प्यारे की ही खातिर तुम्हें प्राणिमात्र को प्यार करना होगा। शाक्य कुमार सिद्धार्थ विश्व प्रेम सिद्ध करने के लिए केवल इसी कारण से अधीर हो रहे थे कि उनका अपनी प्राण प्रिया यशोधरा पर अत्यंत प्रगाढ़ प्रेम था। उस प्रेम को और भी अनन्त और असीम बनाने के लिए ही उन्हें ‘प्रत्रज्या’ की शरण लेनी पड़ी, पूर्ण यौवनावस्था में संन्यासी होना पड़ा। यदि वे अपनी अंतरात्मा में प्रेम प्रवेश के अर्थ अगणित झरोखे न बना लेते, तो कदाचित् कुछ दिनों में उनके अंतरालय का प्रथम प्रणय द्वार भी बंद हो जाता। कुमार सिद्धार्थ अपनी हृदयवल्लभा यशोधरा से कहते हैं- सबसों बढ़िकैं सदा तुम्हें चाह्यौं औ चहिहौं, |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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