प्रेम योग -वियोगी हरि पृ. 210

प्रेम योग -वियोगी हरि

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विश्व प्रेम

कृष्ण सखा को देखकर वे कहते हैं-

तुम्हरो दरसन पाय आपनो जनम सफल करि जान्यौ।
‘सूर’ ऊधो सों मिलत भयौ सुख, ज्यों चख पायो पान्यौ।।

वास्तव में व्रजांगनाएँ प्रेम रस की अद्वितीय अधिकारिणी थीं। ‘गोपी प्रेम की धुजा’- इस उक्ति में तनिक भी अत्युक्ति नहीं है। त्रिलोक वन्दनीया गोपिकाओं ने ही व्रज धाम को विश्व प्रेम का एक सुरम्य स्थल बनाया है।

तुम्हारी अंतरात्मा में भाई! अगणित झरोखे होने चाहिए। इसलिए कि लीलामयी प्रकृति अपनी प्रेम किरणों का सौंदर्य प्रकाश उन अनन्त झरोकों में होकर तुम्हारे अन्तस्तल पर बिखेरती रहे। पर, ऐसा तुम एक बारगी न कर सकोगे। विश्व प्रेम तो प्रेम की अति सीमा है। पहले तो किसी एक ही झरोखे से प्रेम किरणों का प्रवेश कराना होगा, किसी एक ही के साथ अनन्य भाव से लौ लगानी होगी। फिर उस प्रेमपात्र की प्रीति का क्रम क्रम से प्रसार और प्रस्तार करना होगा। उसकी प्रेम वृद्धि के लिए ही तुम्हें अपने भाव विश्वव्यापी बनाने होंगे, या उस प्यारे की ही खातिर तुम्हें प्राणिमात्र को प्यार करना होगा। शाक्य कुमार सिद्धार्थ विश्व प्रेम सिद्ध करने के लिए केवल इसी कारण से अधीर हो रहे थे कि उनका अपनी प्राण प्रिया यशोधरा पर अत्यंत प्रगाढ़ प्रेम था। उस प्रेम को और भी अनन्त और असीम बनाने के लिए ही उन्हें ‘प्रत्रज्या’ की शरण लेनी पड़ी, पूर्ण यौवनावस्था में संन्यासी होना पड़ा। यदि वे अपनी अंतरात्मा में प्रेम प्रवेश के अर्थ अगणित झरोखे न बना लेते, तो कदाचित् कुछ दिनों में उनके अंतरालय का प्रथम प्रणय द्वार भी बंद हो जाता। कुमार सिद्धार्थ अपनी हृदयवल्लभा यशोधरा से कहते हैं-

सबसों बढ़िकैं सदा तुम्हें चाह्यौं औ चहिहौं,
सबके हित जो वस्तु रह्ययौं खोजत औ रहिहौं।
ताहि तिहारे हेतु खोजिहौं अधिक सबन सों,
धीरज यातें धरौ छाँड़ि चिन्ता सब मन सों।
सबसों बढ़िकैं प्रीति करी, तुमसों मैं प्यारी!
कारण, मेरी प्रीति सकल प्राणिन पै भारी। - रामचंद्र शुक्ल

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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प्रेम योग -वियोगी हरि
क्रमांक विषय पृष्ठ संख्या
पहला खण्ड
1. प्रेम 1
2. मोह और प्रेम 15
3. एकांकी प्रेम 25
4. प्रेमी 29
5. प्रेम का अधिकारी 41
6. लौकिक से पारलौकिक प्रेम 45
7. प्रेम में तन्मयता 51
8. प्रेम में अधीरता 56
9. प्रेम में अनन्यता 63
10. प्रेमियों का मत मज़हब 72
11. प्रेमियों की अभिलाषाएँ 82
12. प्रेम व्याधि 95
13. प्रेम व्याधि 106
14. प्रेम प्याला 114
15. प्रेम पंथ 120
16. प्रेम मैत्री 130
17. प्रेम निर्वाह 141
18. प्रेम और विरह 146
19. प्रेमाश्रु 166
20. प्रेमी का हृदय 177
21. प्रेमी का मन 181
22. प्रेमियों का सत्संग 186
23. कुछ आदर्श प्रेमी 190
दूसरा खण्ड
1. विश्व प्रेम 204
2. दास्य 213
3. दास्य और सूरदास 223
4. दास्य और तुलसी दास 232
5. वात्सल्य 243
6. वात्सल्य और सूरदास 253
7. वात्सल्य और तुलसीदास 270
8. सख्य 281
9. शान्त भाव 291
10. मधुर रति 299
11. अव्यक्त प्रेम 310
12. मातृ भक्ति 317
13. प्रकृति में ईश्वर प्रेम 322
14. दीनों पर प्रेम 328
15. स्वदेश प्रेम 333
16. प्रेम महिमा 342
अंतिम पृष्ठ 348

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