समस्त प्राणियों पर भगवान् बुद्ध का यदि प्रेम भाव न होता तो बोधिद्रुम के समीप का वह अलौकिक दिव्य दृश्य हमारे हृदय पटल पर आज काहे को अंकित होता। अहा!
मृग बराह औ बाघ आदि सब बन पशु बैर बिसारि,
ठाढ़े जहँ तहँ चकित चाह भरि, प्रभुमुख रहे निहारि।
फन उठाय नाचत उमंग भरि, निकसि बिलन सों ब्याल,
जात पंख फरकाय संग, बहुरंग बिहंग निहाल।
सावज जारि दियो निज मुखतें, चील मारि किलकार,
प्रभु दर्शन के हेतु गिलाई, कूदति डारनि डार।
देखि गगन घनघटा मुदित ज्यों, नाचत इत उत मोर,
कोकिल कूजत, फिर परेवा, प्रभु के चारों ओर।
कीट पतंगहु परत मुदित लखि, नभ थल एक समान,
जिनके कान सुनत ते सिगरे, यह मृदु मंगल गान।
‘हे भगवान्! तुम जग के साँचे मीत उबारनहारे,
काम, क्रोध, मद, संशय, भ्रम भय, सकल दमन करि डारे।’ -रामचंद्र शुक्ल