प्रेम योग -वियोगी हरि पृ. 208

प्रेम योग -वियोगी हरि

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विश्व प्रेम

वाह री, प्रेम की विस्तीर्णता! कनक विन्दुओं तक में आपको श्रीसीताजी की समानता दिखायी देती है। इसी तरह श्रंगवेरपुर के रामघाट पर आप श्रीराम का ही मानो प्रत्यक्ष दर्शन कर रहे हैं-

राम घाट कहँ कीन प्रनामू। भा मन मगन मिले जनु रामू।। - तुलसी

कुशल समाचार पूछने पर जो पथिक भरत से यह कहते हैं कि हाँ, हमलोगों ने चित्रकूट में उन विश्व विमोहन वनवासियों को देखा है, उन्हें आप राम और लक्ष्मण के ही समान प्रिय समझते हैं-

जे जन कहहिं कुसल हम देखे। ते प्रिय राम लखन सम लेखे।। - तुलसी

और, चरण चिह्नों की उस प्यारी धूल को तो आप माथे पर चढ़ा चढ़ा और हृदय और नेत्रों से लगा लगाकर अघाते ही नहीं। धन्य!

हरषहिं निरखि राम पद अंका। मानहुँ पारसु पायेउ रंका।।
रज सिर धरि हिय नयनन्हि लावहिं। रघुबर मिलन सरिस सुख पावहिं।। -तुलसी

भरत का कैसा पवित्र, उच्च और विस्तृत प्रेम है। प्रत्येक वस्तु में वे अपने हृदयाधार राम की ही प्रतिमूर्ति देखते हैं। अणु अणु में उन्हें अपने प्यारे की ही झलक दिखायी देती है। कैसा दिव्य तादात्म्य है। निश्चयतः भरत साकार प्रेम थे। उनमें चराचर जगत् को प्रेममय कर देने की विलक्षण शक्ति थी-

देखि भरत गति अकथ अतीवा। प्रेम मगन मृग खग जड़ जीवा।। - तुलसी

महात्मा भरत के अन्तस्तल में इतना विशद विश्व प्रेम यदि केन्द्रीभूत न हुआ होता, तो गोसाईजी का यह दिव्य भक्ति उद्गार हमें आज सुनने को कहाँ मिलता है-

होत न भूतल भाव भरत को। अचर सचर, चर अचर करत को?।।

विरहिणी व्रजांगनाएँ भी अंत में विश्व प्रेम की पराकाष्ठा को पहुँच गयी थीं, उनकी दृष्टि में समस्त सृष्टि श्याममयी हो गयी थी। और इसी प्रिय भावना की व्यापकता से वे समस्त संसार को प्यार करने लगी थीं। जो मेघ एक दिन उन्हें मत्त मतंगों की भाँति भीषण देख पड़ते थे, जो वारिद-

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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प्रेम योग -वियोगी हरि
क्रमांक विषय पृष्ठ संख्या
पहला खण्ड
1. प्रेम 1
2. मोह और प्रेम 15
3. एकांकी प्रेम 25
4. प्रेमी 29
5. प्रेम का अधिकारी 41
6. लौकिक से पारलौकिक प्रेम 45
7. प्रेम में तन्मयता 51
8. प्रेम में अधीरता 56
9. प्रेम में अनन्यता 63
10. प्रेमियों का मत मज़हब 72
11. प्रेमियों की अभिलाषाएँ 82
12. प्रेम व्याधि 95
13. प्रेम व्याधि 106
14. प्रेम प्याला 114
15. प्रेम पंथ 120
16. प्रेम मैत्री 130
17. प्रेम निर्वाह 141
18. प्रेम और विरह 146
19. प्रेमाश्रु 166
20. प्रेमी का हृदय 177
21. प्रेमी का मन 181
22. प्रेमियों का सत्संग 186
23. कुछ आदर्श प्रेमी 190
दूसरा खण्ड
1. विश्व प्रेम 204
2. दास्य 213
3. दास्य और सूरदास 223
4. दास्य और तुलसी दास 232
5. वात्सल्य 243
6. वात्सल्य और सूरदास 253
7. वात्सल्य और तुलसीदास 270
8. सख्य 281
9. शान्त भाव 291
10. मधुर रति 299
11. अव्यक्त प्रेम 310
12. मातृ भक्ति 317
13. प्रकृति में ईश्वर प्रेम 322
14. दीनों पर प्रेम 328
15. स्वदेश प्रेम 333
16. प्रेम महिमा 342
अंतिम पृष्ठ 348

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