प्रेम योग -वियोगी हरि
विश्व प्रेमवाह री, प्रेम की विस्तीर्णता! कनक विन्दुओं तक में आपको श्रीसीताजी की समानता दिखायी देती है। इसी तरह श्रंगवेरपुर के रामघाट पर आप श्रीराम का ही मानो प्रत्यक्ष दर्शन कर रहे हैं- कुशल समाचार पूछने पर जो पथिक भरत से यह कहते हैं कि हाँ, हमलोगों ने चित्रकूट में उन विश्व विमोहन वनवासियों को देखा है, उन्हें आप राम और लक्ष्मण के ही समान प्रिय समझते हैं- और, चरण चिह्नों की उस प्यारी धूल को तो आप माथे पर चढ़ा चढ़ा और हृदय और नेत्रों से लगा लगाकर अघाते ही नहीं। धन्य! हरषहिं निरखि राम पद अंका। मानहुँ पारसु पायेउ रंका।। भरत का कैसा पवित्र, उच्च और विस्तृत प्रेम है। प्रत्येक वस्तु में वे अपने हृदयाधार राम की ही प्रतिमूर्ति देखते हैं। अणु अणु में उन्हें अपने प्यारे की ही झलक दिखायी देती है। कैसा दिव्य तादात्म्य है। निश्चयतः भरत साकार प्रेम थे। उनमें चराचर जगत् को प्रेममय कर देने की विलक्षण शक्ति थी- महात्मा भरत के अन्तस्तल में इतना विशद विश्व प्रेम यदि केन्द्रीभूत न हुआ होता, तो गोसाईजी का यह दिव्य भक्ति उद्गार हमें आज सुनने को कहाँ मिलता है- विरहिणी व्रजांगनाएँ भी अंत में विश्व प्रेम की पराकाष्ठा को पहुँच गयी थीं, उनकी दृष्टि में समस्त सृष्टि श्याममयी हो गयी थी। और इसी प्रिय भावना की व्यापकता से वे समस्त संसार को प्यार करने लगी थीं। जो मेघ एक दिन उन्हें मत्त मतंगों की भाँति भीषण देख पड़ते थे, जो वारिद- |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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