प्रेम योग -वियोगी हरि पृ. 19

प्रेम योग -वियोगी हरि

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मोह और प्रेम

भला, देखो तो भाई, प्रेमी कभी ऐसी शिकायत करेगा-

हमको उनसे वफ़ाकी है उम्मेद,
जो नहीं जानते वफ़ा क्या है?

अरे, क्यों प्रेम मणि के मोल पर मोह के काँच को बेच रहे हो? प्रेमियों के हृदय में यह क्षुद्र्र भावना नहीं हुआ करती कि हम उनसे प्रेम चाहते हैं, जो नहीं जानते कि प्रेम क्या है?

अथवा, सच्चे प्रेमी की यह शिकायत नहीं हुआ करती कि-

गिला मैं जिससे करूँ तेरी बेवफ़ाईका,
जहाँ मैं नाम लें फिर वह आशनाईका, - मीर

प्रेमी की भव्य भावना तो भाई, यह है-

मेरी प्रीति होय नन्द नन्दन सों आठों याम,
मोसों जनि प्रीति होय नन्द के किसोर की।

कहाँ तो यह और कहाँ वह कि- ‘जो नहीं जानते वफा क्या है! कौड़ी मोहर का फर्क है या नहीं? फिर क्यों न अपने प्रेम पात्र से वफा की उम्मेद रखने वाले नकली प्रेमी बरबादी की आग में जलकर खाक हो जायँ।’

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

प्रेम योग -वियोगी हरि
क्रमांक विषय पृष्ठ संख्या
पहला खण्ड
1. प्रेम 1
2. मोह और प्रेम 15
3. एकांकी प्रेम 25
4. प्रेमी 29
5. प्रेम का अधिकारी 41
6. लौकिक से पारलौकिक प्रेम 45
7. प्रेम में तन्मयता 51
8. प्रेम में अधीरता 56
9. प्रेम में अनन्यता 63
10. प्रेमियों का मत मज़हब 72
11. प्रेमियों की अभिलाषाएँ 82
12. प्रेम व्याधि 95
13. प्रेम व्याधि 106
14. प्रेम प्याला 114
15. प्रेम पंथ 120
16. प्रेम मैत्री 130
17. प्रेम निर्वाह 141
18. प्रेम और विरह 146
19. प्रेमाश्रु 166
20. प्रेमी का हृदय 177
21. प्रेमी का मन 181
22. प्रेमियों का सत्संग 186
23. कुछ आदर्श प्रेमी 190
दूसरा खण्ड
1. विश्व प्रेम 204
2. दास्य 213
3. दास्य और सूरदास 223
4. दास्य और तुलसी दास 232
5. वात्सल्य 243
6. वात्सल्य और सूरदास 253
7. वात्सल्य और तुलसीदास 270
8. सख्य 281
9. शान्त भाव 291
10. मधुर रति 299
11. अव्यक्त प्रेम 310
12. मातृ भक्ति 317
13. प्रकृति में ईश्वर प्रेम 322
14. दीनों पर प्रेम 328
15. स्वदेश प्रेम 333
16. प्रेम महिमा 342
अंतिम पृष्ठ 348

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