प्रेम योग -वियोगी हरि
मोह और प्रेमउन्हें भी जोशे उल्फ़त हो त लुत्फउट्ठे मुह्बतका, उसके प्रेम न करने पर यदि हमारे प्रेम में कुछ कमी आ जाती है, यदि हम व्याकुल हो जाते हैं तो न हम प्रेमी हैं और न हमारा वह प्रेम है। यदि हमारा यह भाव है कि- गैर लें महफिल में बोसे जामके, यानी, तुम्हारी महफिल में दूसरे लोग तो मजेसे शराब के प्याले ढालें और हम बात करने के लिए भी प्यासे ही बनें रहें, तो हमें समझ लेना चाहिए कि हम प्रेम से अभी कोसों दूर हैं, प्रेय पयोधि के हम मीन नहीं- मोह कूपके मूढ़ मण्डूक हैं। यदि हम भी गालिब के साथ अपने प्रेमास्पद से यह कहा करते हैं कि- कहर हो या बला हो, या जो कुछ हो- तो हम प्रेमी होना का दावा शायद मरते दम भी न कर सकेंगे। ‘मगर तुम होते सिर्फ मेरे लिए ही, दूसरे के न होते, मेरे ही सब कुछ होते’- इस लोभ लालसा के और ‘प्यारे जीवें, जगत हित करें, गेह चाहे न आवें-’ इस स्वर्गीय भावना के बीच में कितना बड़ा अंतर है! फिर भी हम मोह के प्रेम के स्थान पर बिठाना चाहते हैं! किमाश्चर्यमतः परम्! |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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