प्रेम योग -वियोगी हरि पृ. 18

प्रेम योग -वियोगी हरि

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मोह और प्रेम

उन्हें भी जोशे उल्फ़त हो त लुत्फउट्ठे मुह्बतका,
हमी दिन रात अगर तड़पे तो फिर इसमें मज़ा क्या है?

उसके प्रेम न करने पर यदि हमारे प्रेम में कुछ कमी आ जाती है, यदि हम व्याकुल हो जाते हैं तो न हम प्रेमी हैं और न हमारा वह प्रेम है। यदि हमारा यह भाव है कि-

गैर लें महफिल में बोसे जामके,
हम रहें यूँ तिश्ना लब पैगाम के।

यानी, तुम्हारी महफिल में दूसरे लोग तो मजेसे शराब के प्याले ढालें और हम बात करने के लिए भी प्यासे ही बनें रहें, तो हमें समझ लेना चाहिए कि हम प्रेम से अभी कोसों दूर हैं, प्रेय पयोधि के हम मीन नहीं- मोह कूपके मूढ़ मण्डूक हैं। यदि हम भी गालिब के साथ अपने प्रेमास्पद से यह कहा करते हैं कि-

कहर हो या बला हो, या जो कुछ हो-
काश कि तुम मेरे लिये होते।

तो हम प्रेमी होना का दावा शायद मरते दम भी न कर सकेंगे। ‘मगर तुम होते सिर्फ मेरे लिए ही, दूसरे के न होते, मेरे ही सब कुछ होते’- इस लोभ लालसा के और ‘प्यारे जीवें, जगत हित करें, गेह चाहे न आवें-’ इस स्वर्गीय भावना के बीच में कितना बड़ा अंतर है! फिर भी हम मोह के प्रेम के स्थान पर बिठाना चाहते हैं! किमाश्चर्यमतः परम्!

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

प्रेम योग -वियोगी हरि
क्रमांक विषय पृष्ठ संख्या
पहला खण्ड
1. प्रेम 1
2. मोह और प्रेम 15
3. एकांकी प्रेम 25
4. प्रेमी 29
5. प्रेम का अधिकारी 41
6. लौकिक से पारलौकिक प्रेम 45
7. प्रेम में तन्मयता 51
8. प्रेम में अधीरता 56
9. प्रेम में अनन्यता 63
10. प्रेमियों का मत मज़हब 72
11. प्रेमियों की अभिलाषाएँ 82
12. प्रेम व्याधि 95
13. प्रेम व्याधि 106
14. प्रेम प्याला 114
15. प्रेम पंथ 120
16. प्रेम मैत्री 130
17. प्रेम निर्वाह 141
18. प्रेम और विरह 146
19. प्रेमाश्रु 166
20. प्रेमी का हृदय 177
21. प्रेमी का मन 181
22. प्रेमियों का सत्संग 186
23. कुछ आदर्श प्रेमी 190
दूसरा खण्ड
1. विश्व प्रेम 204
2. दास्य 213
3. दास्य और सूरदास 223
4. दास्य और तुलसी दास 232
5. वात्सल्य 243
6. वात्सल्य और सूरदास 253
7. वात्सल्य और तुलसीदास 270
8. सख्य 281
9. शान्त भाव 291
10. मधुर रति 299
11. अव्यक्त प्रेम 310
12. मातृ भक्ति 317
13. प्रकृति में ईश्वर प्रेम 322
14. दीनों पर प्रेम 328
15. स्वदेश प्रेम 333
16. प्रेम महिमा 342
अंतिम पृष्ठ 348

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